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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
३ - क्षयोपशमसम्यग्दष्टि जब श्रनन्तानुबन्धी का क्षय कर देता है तो उसके मोहनीयकर्म की २४ प्रकृतियों की सत्ता रह जाती है ।
४ - मोहनीयकर्म की २४ प्रकृतिक सत्तावाला क्षयोपशमसम्यग्डष्टिजीव क्षायिकसम्यग्दर्शन के प्रभिमुख जब मिथ्यात्वप्रकृति का क्षय कर देता है उसके मोहनीयकर्म की २३ प्रकृति की सत्ता रह जाती है ।
५- २३ प्रकृति की सत्तावाला क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि जब सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का भी क्षय कर देता है तब उसके मोहनीयकर्म की २२ प्रकृति की सत्ता रह जाती है ।
ये पाँच भेद क्षयोपशमसम्यग्दर्शन की अपेक्षा से हुए ।
सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थान में भी दर्शनमोह की अपेक्षा क्षायोपशमिकभाव कहा है ( धवल पु० ५ पृ० १९८ ) अतः दो भेद सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थान की अपेक्षा बन जाते हैं ।
६ - मोहनीयकर्म की २८ प्रकृति की सत्तावाला जीव सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थान को प्राप्त होता है उसकी २८ प्रकृति का सत्त्व होता है ।
७ – अनन्तानुबन्धीकषाय की विसंयोजना करके २४ प्रकृति की सत्तावाला सम्यग्डष्टिजीव जब सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थान को प्राप्त होता है उसके मोहनीयकर्म की २४ प्रकृति की सत्ता होती है ।
राजवार्तिक अध्याय २ सूत्र ५ वार्तिक ९ की टीका में कहा भी है, क्षयोपशमसम्यक्त्व के ग्रहण करने से सम्यग्मिथ्यात्वका भी ग्रहण हो जाता है ।
- जै. ग. 13-6-63 / 1X / स. म.
क्षयोपशम सम्यक्त्व में अनिवृत्तिकरण तथा गुणश्रेणी नहीं
शंका- क्षयोपशमसम्यक्त्व में अनिवृत्तिकरण तथा गुणक्षणी क्यों नहीं होती ?
समाधान-क्षयोपशमसम्यक्त्व निर्मल नहीं है । सम्यक्त्वप्रकृति के उदय के कारण चल-मल अगाढ़ दोष लगते रहते हैं । क्षयोपशमसम्यक्त्व प्राप्त करने के लिए परिणामों में इतनी विशुद्धता नहीं होती जितनी उपशमसम्यक्त्व प्राप्त करने के समय होती है । अतः क्षयोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय अनिवृत्तिकरण तथा गुणश्रेणी नहीं होती ।
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क्षायोपशम सम्यक्त्वी वीतराग सम्यक्त्वी नहीं है
शंका- मई १९६५ के सम्मतिसंदेश पृ० ६३ पर श्री पं० कूलचम्बजी ने लिखा है - " दर्शनमोहनीयकी तीन और अनन्तानुबन्धी आदि चार इन सातप्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम होनेपर स्वभावसन्मुख हुए आत्मा में जो विशुद्धि उत्पन्न होती है वह वीतरागसम्यक्त्व है ।" क्या क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि के भी वीतरागसम्यक्त्व हो सकता है ?
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- पत्राचार / ब. प्र. स. पटना
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