________________
३४६ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार
मस्स अपढमस्स वु जो खलु अपढमो सम्मसपडिलंभो तस्स पच्छवो मिच्छतोदयो भजियध्वो होइ । ( ज० घ० १२।३१७ )
अर्थ — प्रनादि मिथ्याडष्टि के जो प्रथमबार सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, इसके अनन्तरपूर्वअवस्था में मिथ्यात्व का ही उदय रहता है, क्योंकि उसके प्रथमस्थिति के अन्तिमसमय तक मिथ्यात्वोदय के अतिरिक्त सम्यक्त्वप्रकृति आदि के उदय की संभावना नहीं है, परन्तु जब दूसरी आदि बार सम्यक्त्व प्राप्त होता है तब अनन्तरपूर्व अवस्था में मिध्यात्व का उदय भजितव्य है अर्थात् मिथ्यात्व का भी उदय हो सकता है और कदाचित् सम्यग्मिथ्यात्व का भी उदय हो सकता है |
यहाँ पर 'पच्छदो' का अर्थ पूर्व है । धवल पु० १ पृ० ४०८; ५० ४ पृ० ३४९; ज० ध० पु० ७ पृ० ३२० पर भी 'पच्छाद' का अर्थ पूर्व किया गया है ।
- जै. ग. 28-12-72 / VII / क. दे.
(१) उद्वेलनाकाण्डक का प्रकथन
(२) २८ प्रकृतियों के सत्त्व वाला मिथ्यात्वी भी प्रथम सम्यक्त्व पा सकता है
शंका - २६ प्रकृति को सत्तावाले मिथ्यादृष्टि के उपशमसम्यक्त्व पल्योपम के असंख्यातवें भाग काल व्यतीत हो जाने पर पुनः होता है, ऐसा ध० पांचवीं पुस्तक में लिखा है । प्रश्न यह है कि २८ प्रकृति की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि भी क्या इतने ही काल के व्यतीत होने पर उपशमसम्यक्त्व प्राप्त करेगा या पहले भी ?
समाधान —– प्रथमोपशमसम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्वगुणस्थान में पहुँचने पर सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की उद्वेलना प्रारंभ करता है । प्रत्येक उद्घोलनाकाण्डक में पत्य के असंख्यातवेंभाग सम्यक्त्व व मिश्रप्रकृति की स्थिति का सत्त्व कम होता जाता है । एक उद्वेलनाकाण्डक का उत्कीर्णकाल अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यातउवळे लनाकाण्डकों के द्वारा अर्थात् पत्यके श्रसंख्यातवें भाग काल के द्वारा सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की स्थिति अन्तःकोड़ा कोड़ीसागर से घटकर पृथक्त्वसागर या एक सागर रह जाती है, तब यह जीव पुनः प्रथमोपशमसम्यग्दर्शन उत्पन्न करने के योग्य होता है । सम्यक्त्वप्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की जब तक एकसागर स्थिति न रह जावे उस समय तक क्षयोपशमसम्यक्त्व तो हो सकता है, किन्तु प्रथमोपशमसम्यक्त्व नहीं हो सकता है । इसप्रकार सम्यक्त्वप्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की एकसागर या पृथक्त्वसागर की स्थिति सत्तावाला अर्थात् मोहनीय की २८ प्रकृतियों का सत्तावाला मिथ्यादृष्टिजीव भी पल्योपम के असंख्यातव काल व्यतीत होने से पूर्व पुनः प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त नहीं हो सकता है, क्योंकि प्रथमोपशमसम्यक्त्व का जघन्य अन्तर भी पल्योपम का प्रसंख्यातवभाग है । इस सम्बन्ध में धवल पु० ५ पृ० १० देखना चाहिये ।
-- जै. ग. 7-12-67/ VII / र. ला. जैन
Jain Education International
उपशम सम्यक्त्व से सीधा क्षायिकसम्यक्त्व नहीं होता
शंका- क्या उपशमसम्यग्दर्शन से सीधा क्षायिकसम्यग्दर्शन हो सकता है ?
समाधान — उपशमसम्यग्दर्शन से क्षायिकसम्यग्दर्शन नहीं हो सकता । उपशमसम्यग्दर्शन से क्षयोपशमसम्यग्दर्शन होता है अर्थात् उपशमसम्यग्दर्शन का काल समाप्त हो जाने पर सम्यक्त्वप्रकृति के उदय होने से क्षयोप
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org