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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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जिबिंबदंसरोण णिधत्तणिकाचिवस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदसणादो । "दर्शनेन जिनेन्द्राणां पापसंघातकुञ्जरम । शतधा भेदमायाति गिरिर्ववहतो यथा।" जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्व आदि कर्मकलाप का क्षय देखा जाता है जिससे जिनबिम्ब का दर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण होता है।
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जिनेन्द्र के दर्शन से पाप संघातरूपी कुञ्जर के ( घातिया कर्मों के ) सौ टुकड़े हो जाते हैं अर्थात् खण्डखण्ड हो जाते हैं, जिसप्रकार वज्र के आघात से पर्वत के खण्ड-खण्ड हो जाते हैं।
"जिणपूयावंदणणमंसरणेहि य बहुकम्मपदेस णिज्जरुवलंभादो।" ( धवल पु० १० पृ० २८९) जिनपूजा, वन्दना, नमस्कार से भी बहुत कर्मप्रदेशों की निर्जरा होती है ।
अरहंतणमोवकारं भावेण य जो करेदि पयउमदी।
सो सम्वदुक्ख मोक्खं पावइ अचिरेण कालेण ॥ मूलाचार ७९ ॥ श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी मूलाचार में कहा है जो विवेकी जीव भावपूर्वक अरहंत को नमस्कार करता है वह अतिशीघ्र समस्त संसारदुःख से मुक्त हो जाता है अर्थात् संसार समुद्र से पार होकर मोक्षपद प्राप्त कर लेता है।
-पताचार | ज. ला. जैन, भीण्डर प्रथमोपशम सम्यक्त्व के प्रस्थापक ( प्रारम्भक ) के निद्रा और प्रचला का वेदन असम्भव है
शंका-प्रथमोपनसम्यक्त्व के अभिमुख जीव के चक्षु-अचक्षु-अवधि-केवल इन चार दर्शनावरणीयकर्म का उदय तो संभव है, किन्तु उसके प्रचला या निवाप्रकृति का उदय किस प्रकार संभव है, जबकि प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख जीव जागृत होता है ?
समाधान-धवल पु०६ पृ० २०७ से प्रथमोपशम-सम्यक्त्व के अभिमुख जीव का कथन प्रारम्भ हना है उसी जीव के विषय में पृ० २१० पर यह कहा गया है कि "यह जीव चक्षु-अचक्षु, अवधि और केवल दर्शनावरणीय इन चार प्रकृतियों का वेदक होता है, यदि निद्रा या प्रचला में से किसी एक का उदय हो तो दर्शनावरणीयकर्म की पाँच प्रकृतियों का वेदक होता है।"
प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख जीव प्रस्थापक से लेकर निष्ठापक तक होता है। अतः उसके दर्शनावरणीयकर्म की चार ब पांचप्रकृतियों का उदय संभव है, किन्तु प्रस्थापक के पाँचप्रकृतियों का उदय संभव नहीं है, .. क्योंकि प्रस्थापक के साकारउपयोग होता है। कहा भी है
सायारे पट्टवओ पिट्ठवओ मज्झिमो य भयणिज्जो। ( ज० ध० पु० १२ पृ० ३०४ ) "दर्शनमोह के उपशमन का प्रस्थापकजीव साकारउपयोग में विद्यमान होता है, किन्तु उसका निष्ठापक और मध्य अवस्थावर्तीजीव भजितव्य है।" इसकी टीका में श्रीजयसेन आचार्य ने इस प्रकार लिखा है:-( सागारे पट्ठवगो) "एवं भणिदे सण मोहोवसामणमाढवेतो अधापवत्तकरण पढमसमयप्पहुडि अंतोमुत्तमेत्तकालं पढवगोणामभववि । सो वुण तदवत्थाए
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