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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान-अनादिमिथ्या दृष्टि प्रथमोपशमसम्यक्त्व ग्रहण करने के प्रथमसमय में अनन्तसंसारको छेदकर अर्धपदगलपरिवर्तनमात्र काल करता है। उसी समय संयम को भी ग्रहण कर लेता है। प्रथमोपशमसम्यग्दर्शन में छठे और सातवें गुणस्थान के अतिरिक्त अन्य गुणस्थान परिवर्तन नहीं होता है। अतः प्रथमोपशमसम्यक्त्व के काल में संयतसे अविरतसम्यग्दृष्टि चतुर्थगुणस्थान होना असंभव है । प्रथमोपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियों के शेष रहने पर सासादनगुणस्थान होना संभव है। इसीलिये सूत्र १६८ की टीका में कहा है-"अर्घपुद्गलपरिवर्तन के प्रथम समय में संयम को ग्रहणकर उपशमसम्यक्त्व के काल में छह प्रावलियां शेष रहने पर असंयम को प्राप्त होकर होता है।"
जं. ग. 15-8-66/IX/ र. ला, जैन, मेरठ (१) क्षयोपशम व विशुद्धि लब्धि के पूर्व प्रात्मबोध नहीं होता
(२) क्षयोपशम व विशुद्धि लब्धि में स्थितिबन्ध नहीं घटता
शंका-नवम्बर १९६७ के जैनसंदेश में लिखा है कि "यह आत्मबोध ही है जो मिथ्यात्व से विमुख करता है। उसके होने पर आत्मा में क्रांति की लहरें उठने लगती हैं और मिथ्यात्व का सिंहासन हिलने लगता है। तभी तो क्षयोपशम और विशुद्धिलब्धि होती है। जिनसे कर्मों की स्थिति एकदम घट जाती है ।" इस पर निम्न शंका उपस्थित होती है।
— (क) क्या आत्मबोध होने के पश्चात ही क्षयोपशम और विशुद्धिलब्धि होती हैं तथा क्या उससे पूर्व ये दोनों लब्धियाँ नहीं होती ?
(ख) क्या क्षयोपशम व विशुद्धिलब्धियों में स्थितिबंध घट जाता है ?
समाधान-(क) क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना तथा प्रायोग्य ; ये प्रथम चार लब्धियां भव्य और अभव्य दोनों के ही संभव हैं। कहा भी है
"एवाओ चत्तारि बि लद्धीओ भवियाभवियमिच्छाइट्ठीणं साहारणाओ, दोसु वि एदाणं संभवादो। उक्तंच
खयउवसमिय विसोही देसण पाओग्ग करणलद्धीय । चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होइ सम्मत्ते ॥".
अर्थ-प्रारम्भ की ये चारों ही लब्धियाँ भव्य और अभव्यमिथ्याष्टिजीवों के साधारण हैं, क्योंकि दोनों ही प्रकार के जीवों में इन चारों लब्धियों का होना संभव है। कहा भी है-क्षयोपशमलब्धि, विशूद्धिलब्धि, देशनालब्धि प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि ये पाँच लब्धियां होती हैं। इनमें से पहली चार तो सामान्य हैं. अर्थात
और अभव्य दोनों प्रकार के जीवों के होती हैं, किन्तु करण लब्धि सम्यक्त्व होने के समय होती है।
यदि जैन संदेश के लेखानुसार यह मान लिया जाय कि प्रात्मबोध होने पर ही क्षयोपशम और विशुद्धिलब्धियाँ होती हैं तो अभव्य के भी प्रात्मबोध का प्रसंग आ जायगा, क्योंकि अभव्यों के भी क्षयोपशम और विशुद्धिलब्धियाँ होती हैं । दूसरे देशनालब्धि व्यर्थ हो जायगी, क्योंकि आत्मबोध तो क्षयोपशमलब्धि से पूर्व हो चुका था।
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