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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३२६ लेनेपर अन्य ही भव्यभाव उत्पन्न होता है, क्योंकि सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाने पर फिर केवल अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र कालतक संसार में स्थिति रहती है । (धवल पु० ७ पृ० १७६-१७७ ) जिन्हें ऐसी श्रद्धा नहीं है वे मोक्षसुख के सुधापान से दूर रहने वाले अभव्य मृगतृष्णा के जलसमूह को ही देखते हैं। और जो उस वचन को इसी समय स्वीकार ( श्रद्धा ) करते हैं वे शिवश्री के भाजन आसन्न भव्य हैं। और जो आगे जाकर स्वीकार करेंगे वे दूर भव्य हैं । प्र० सा० गाथा ६२ की टीका। जो भव्यजीव नित्यनिगोदिया हैं उनमें ध्र वपद (अनादि-अनन्तपना ) देखा जाता है सो ऐसी आशंका करनी भी ठीक नहीं है, क्योंकि उनके भी मोहनीय के नाश करने की शक्ति पाई जाती है। यदि उनके मोहनीय के नाश करने की शक्ति न मानी जाय तो वे भव्य न होकर अभव्य की समानता को प्राप्त हो जायेंगे। ज० ध० पु०२ पृ० २४ ॥ ___ अभव्यों के समान जो भव्य हैं उनके भी ध्रवपद ( अनादि अनंतपना ) नहीं है, क्योंकि उनके नाश करने की शक्ति पाई जाती है। ज० ध० पु०२ पृ० ९०। किन्हीं जीवों के अवस्थित विभक्ति स्थान ( मोहनीयकर्म की २६ प्रकृति की अवस्थिति अर्थात २६ की बजाय २८ नहीं होती, २६ ही होती हैं-२६ ही बनी रहती हैं। सम्यक्त्व होने पर ही मिथ्यात्व के तीन टकडे होकर २६ की बजाय २८ प्रकृतिक स्थान होता है ) अनादिअनंत होता है, क्योंकि जो अभव्य हैं या अभव्यों के समान नित्य-निगोद को प्राप्त हुए भव्य हैं उनके अवस्थित स्थान ( २६ प्रकृति का स्थान ) के सिवाय भुजगार ( २८ प्रकृति का स्थान ) और अल्पतर ( २८ से घटकर २७ का हो जाना ) नहीं पाये जाते हैं। ( ज० ध० पु० २ पृ० ३८९) आगमप्रमाण लिख दिये। समझने की बात यह है कि भव्यजीव अनन्त हैं जो नित्यनिगोद में पड़े हए हैं जिनमें से ६०८ जीव प्रत्येक ६ माह ८ समय में निकलते रहते हैं । भविष्यकाल भी अनन्त है। जिसप्रकार भविष्यकाल में से ६ माह ८ समय निकलते रहते ( व्यतीत होते ) हैं, किन्तु भविष्य काल का कभी अन्त नहीं आयेगा, क्योंकि यदि भाविकाल का क्षय मान लिया जावे तो काल की समस्तपर्यायों का क्षय हो जाने से दूसरे द्रव्यों की स्वलक्षणरूप पर्यायों का भी अभाव हो जायेगा और इसलिये समस्त वस्तुओं के अभाव की आपत्ति आ जायगी (ध० पु०१पृ० ३९३ )। उसी प्रकार भव्यजीव नित्यनिगोद में से निकलने पर भी कभी नित्यनिगोदिया जीवों का अन्त नहीं आयेगा अर्थात् ऐसे भी नित्यनिगोदिया हैं जो कभी निगोद से नहीं निकलेंगे (ध० पू०१ १० २७१)। यदि यह मान लिया जावे कि सब भव्यजीव नित्यनिगोद से निकलकर मोक्ष चले जावेंगे तो भव्यजीवों का अभाव हो जाने से उसके प्रतिपक्षी अभव्यों का भी अभाव हो जायेगा और प्रभव्यों का भी प्रभाव हो जाने से संसारी जीवों का प्रभाव हो जायेगा और संसारी जीवों का अभाव होने से प्रतिपक्षी मुक्त जीवों का भी अभाव हो जायेगा। (ध० पु० १४ पृ० २३५-२३६ ) दो Parallel. ( समानान्तर ) Line हैं जिनका प्रमाण अनन्त है। उनमें से एक व्यवहार काल की Line है दूसरी जीवराशि की। जब काल का कभी अन्त नहीं होगा तो भव्य जीवों का अन्त कैसे होगा? उनका भी कभी अन्त नहीं होगा। इस अपेक्षा से कहा जाता है कि ऐसे भी भव्यजीव हैं जो कभी नित्यनिगोद से नहीं निकलेंगे उनको दूरातिदूर भव्य कहा है, किन्तु बात यह है कि भावीकाल भी चलता रहेगा और नित्यनिगोद से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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