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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
भावलिंगी मुनि भी द्रष्यलिंगी अवश्य होते हैं, क्योंकि जो नग्न नहीं हैं वे भावलिंगी नहीं हो सकते। प्रथम तो नग्नतारूप द्रव्यलिंग होगा उसके पश्चात् भावलिंग होगा।
-पतावार 77-78/ ज. ला. जैन, भीण्डर
भव्य मार्गरणा
भव्य व प्रभव्य पर्याय शंका-भव्य अभव्य क्या वस्तु है ? द्रव्य या गुण या पर्याय ?
समाधान-भव्य और प्रभव्य भाव जीव की व्यंजनपर्याय है (ध० पु०७ पृ० १७८ ) चार अघातिया कर्मोदय से उत्पन्न हुआ असिद्धभाव है। वह दो प्रकार का है-अनादिअनन्त और अनादि-सान्त । इनमें से जिनके प्रसिद्धभाव अनादि-अनन्त हैं वे अभव्यजीव हैं और जिनके दूसरे प्रकार का है वे भव्यजीव हैं और अभव्यत्व ये भी विपाक प्रत्ययिक ही हैं; किन्तु असिद्धत्व का अनादि-अनन्तपना और अनादि-सान्तपना निष्कारण है, यह समझकर तत्त्वार्थसूत्र में इसको पारिणामिक कहा है (ध० पु० १४ पृ० १३ व १४)। अतः भव्यत्व प्रभव्यत्वभाव पर्याय हैं, द्रव्य या गुण नहीं हैं।
-जें. ग. 27-2-64/IX/ स. रा. जैन भव्य व अभव्य दोनों अनन्तबार ग्रं वेयकों में उत्पन्न हो सकते हैं शंका-अनन्तवार नव अवेयकों में मात्र अभव्य ही जाते हैं या भव्य व अभव्य दोनों ?
समाधान-भव्य और अभव्य दोनों अनन्तबार अवेयकों में उत्पन्न हो सकते हैं, क्योंकि मिथ्यात्व की अपेक्षा भव्य और अभव्यों में कोई अन्तर नहीं है।
-जें. ग. 25-5-78/VI/ मुनिश्रुतसागरजी मोरेनावाले (१) विशुद्धि से अभव्यों के भी प्रायोग्यलब्धि में स्थिति घट जाती है
(२) भव्य के भी प्रायोग्य के बाद करणलब्धि होनी जरूरी नहीं
शंका-प्रायोग्यलब्धि में भव्य और अभव्य दोनों की कर्मस्थिति अन्तःकोटाकोटीसागर हो जाती है। जय चंकिकरणलब्धि को प्राप्त होगा अतः उसकी कमंस्थिति का तो अन्तःकोटाकोटीसागर हो जाना संभव है. किन्त अभव्य की कर्मस्थिति किसकारण से अन्त:कोटाकोटीसागर होती है ?
समाधान-प्रायोग्यलब्धि के पश्चात् भव्य के करणलब्धि अवश्य हो, ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है। देशनालब्धि में यथार्थ उपदेश मिलने पर भव्य और अभव्य दोनों के तत्त्वचिंतन तथा विचार होता है जिससे उनकी विशुद्धि इतनी बढ़ जाती है कि कर्मों की स्थिति कटकर अन्तःकोटाकोटीसागर रह जाती है। प्रायोग्यलब्धि का कोई काल नियत नहीं है जब यह संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तजीव बुद्धिपूर्वक प्रयोजनभूततत्त्वों का यथार्थ चिंतन या विचार
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