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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । "ननु च योगप्रवृत्तिरात्मप्रदेशपरिस्पन्दःक्रिया, सा वीर्यलग्धिरिति मायोपशमिको व्याख्याता, कषायश्चौबयिको व्याख्यातः, ततो लेश्याऽनर्थान्तरभूतेति, नैष दोषः, कषायोदयतीवमन्दावस्थापेक्षामेवाद् अर्थान्तरत्वम् । सा षड्विधा-कृष्णलेश्यानीललेश्याकापोतलेश्या तेजोलेश्यापद्मलेश्याशुक्ललेश्या चंति । तस्यात्मपरिणामस्याशुद्धिप्रकर्षाप्रकर्षापेक्षया कृष्णादिशब्दोपचारः क्रियते ।" (रा. वा. २०६८)।
अर्थात् यद्यपि योगप्रवृत्ति आत्मप्रदेशपरिस्पन्दरूप होने से क्षायोपशमिक वीर्यलब्धि में अन्तर्भूत हो जाती है और कषाय प्रौदयिक होती हैं फिर भी कषायोदय के तीव्र मन्द आदि तारतम्य से अनुरंजित लेश्या पृथक् ही है । आत्मपरिणामों की अशुद्धि की प्रकर्षता, अप्रकर्षता की अपेक्षा लेश्या के छह भेद हो जाते हैं जिनका कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल शब्दों के द्वारा उपचार किया जाता है।।
"कर्मलेपैककार्यकर्तृत्वेनकत्वमापन्नयोर्योगकषाययोलेश्यात्वाभ्युपगमात् । नैकत्वात्तयोरन्तर्भवति द्वयात्मकक. स्य जात्यान्तरमापन्नस्य केवलेनकेन सहैकत्व-समानत्वयोविरोधात् ।" (धवल पु० ११० ३८७)
अर्थ-कर्मलेपरूप एक कार्य को करने वाले होने की अपेक्षा एकपने को प्राप्त हए योग और कषाय को लेश्या माना है। यदि कहा जाय कि एकता को प्राप्त हए योग और कषायरूप लेश्या होने से उन दोनों में लेश्या का अन्तर्भाव हो जायगा, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि दो धर्मों के संयोग से उत्पन्न हुए द्वयात्मक, अतएव किसी एक तीसरी अवस्था को प्राप्त हुए किसी एक धर्म का केवल एक के साथ एकत्व अथवा समानता मान लेने में विरोध आता है।
षडविधः कषायोदयः । यद्यथा, तीव्रतमः तीव्रतरः तीव्रः मन्दः मन्दतरः मन्दतमः इति । ऐतेभ्यः षडण्यः कषायोदयेभ्यः परिपाट्या षड़ लेश्या भवन्ति । कृष्णलेश्यानीललेश्याकापोतलेश्यापीतलेण्यापपलेश्याशक्ललेश्या चेति ।" (धवल पु० १ पृ० ३८८ )
अर्थ-कषाय का उदय छः प्रकार का होता है । वह इस प्रकार है-तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर और मन्दतम । इन छह प्रकार के कषाय के उदय से उत्पन्न हुई परिपाटीक्रम से लेश्या भी छह हो जाती हैं। कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पालेश्या और शुक्ललेश्या।
"मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगजणिदो जीवसंस्कारो भावलेस्साणाम । तत्थ जो तिखो सा काउलेस्सा। कोवियरो साणीललेस्सा। जो तिव्वतमो सा किण्णलेस्सा जो मंदो सा तेउलेस्सा। जो मंदयरो सा पम्मलेस्सा। जो मंदतमो सा सुक्कलेस्सा।"
अर्थ-मिथ्यात्व असंयम कषाय और योग से उत्पन्न हुए जीव के संस्कारों को भावलेश्या कहते हैं। उसमें जो तीन संस्कार हैं उसे कापोतलेश्या, उससे जो तीव्रतर संस्कार हैं उसे नीललेश्या और जो तीव्रतम संस्कार हैं उसे कृष्णलेश्या कहा जाता है। जो मंद संस्कार हैं उसे तेज ( पीत ) लेश्या, जो मंदतर संस्कार हैं उसे पद्मलेश्या. मंदतम संस्कार हैं उसे शुक्ललेश्या कहते हैं।
-जे.ग.8-8-66/VII-VIII/मा. ला. जैन
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