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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
वही भेदष्टिसे छेदोपस्थापनासंयम है। अतः प्रमत्तसंयत प्रादि चारों गुणस्थानोंमें द्रव्याथिकनयकी दृष्टिसे सामायिकसंयम और पर्यायाथिकनयकी दृष्टिसे छेदोपस्थापनासंयम इसप्रकार दोनों संयम सिद्ध हो जाते हैं।
-जं. ग. 23-4-64/IX/ मदनलाल
परिहार विशुद्धि की अस्थिरता
शंका-परिहारविशुद्धिसंयतजीव नीचे के गुणस्थानों में उसी जीवन में आता है या नहीं ? यदि आता है तो कौन से गुणस्थान तक ?
समाधान-परिहारविशुद्धिसंयत उसी भवमें संयम से च्युत होकर नीचेके गुणस्थानोंमें प्रथमगुणस्थान तक पा सकता है (ध० पु० ७ पृ० २२३)। परिणामों की तथा कर्मोदय की विचित्रता है। मुनि यथाख्यातचारित्र से भी गिरकर मिथ्यात्वगुणस्थान में आकर कुछकम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल तक संसार में परिभ्रमण कर सकता है।
-जं. ग..... ...........
यथाख्यातचारित्र का उत्कृष्ट काल शंका-धवल पु० ७ पृ० १७१ सूत्र १६२ 'कुछकम पूर्वकोटि' का तात्पर्य क्या 'आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्तकम पूर्वकोटि' है ?
समाधान-सूत्र १६२ में यथाख्यातचारित्र के उत्कृष्ट काल का कथन है और यथाख्यातचारित्र का उत्कृष्टकाल आठवर्ष व अन्तमहतंकम एकपूर्वकोटि है, क्षायिकसम्यग्दृष्टि एककोटिपूर्व की आयूवाला मनुष्य गर्भसे आठवर्षों को बिताकर संयमको प्राप्तकर, सर्वलघुकाल में चारित्रमोहनीय का क्षयकर यथाख्यातचारित्र को धारणकर शेष आयकाल यथाख्यातचारित्र के साथ बिताकर अबन्धक ( मोक्ष ) अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
-जं. ग. 15-8-66/IX/ र. ला. जैन, मेरठ यथाख्यात संयमियों में भी चारित्रगत असंख्यात भेद शंका-सर्वार्थसिद्धि ९/४७ में अकषायी जीवों के भी चारित्रस्थान बताये हैं । अकषायी जीवों में चारित्र. स्थान कैसे सम्भव हो सकते हैं ?
समाधान-अकषायी जीवों में कषायोदयजनित चारित्रस्थान सम्भव नहीं है, किन्तु चारित्र की पूर्णता, अपूर्णता की अपेक्षा अकषायी जीवों में चारित्रस्थान सम्भव हैं।
प्रागेव क्षायिकं पूर्ण क्षायिकत्वेन केवलात् । नत्वघातिप्रतिध्वंसिकरणोपेतरूपतः ॥५॥[ श्लोकवातिक अ० ११० १]
केवलात्प्रागेव क्षायिक यथाख्यातचारित्रं सम्पूर्ण ज्ञानकारणमिति न शंकनीयम् । तस्य मुक्त्युपादाने सहकारिकारणविशेषापेक्षितया पूर्णत्वानुपपत्तेः । विवक्षितस्वकार्यकरणे अन्त्यप्राप्तत्वं हि सम्पूर्ण, तच्च न केवला. प्रागस्ति चारित्रस्य ततोप्युव॑मघातिध्वंसिकरणोपेतरूपतया सम्पूर्णस्य तस्योदयात् ।। श्लोकवातिक)
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