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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
के भेद आषग्रंथों में भी कहीं वर्णित हैं ? यदि हैं तो ये तीन भेद बारहमेवों से किसप्रकार समन्वय को प्राप्त होते हैं ?
समाधान - सर्वार्थसिद्धि अ० ९ सूत्र १ की टीका में अनन्तानुबन्धी प्रादि कषायोदय से तीनप्रकार के असंयम का कथन इस प्रकार है
"असंयमस्त्रिविधः अनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यान प्रत्याख्यानोदय विकल्पात् ।"
अर्थ - असंयम तीन प्रकार का है- अनन्तानुबन्धीका उदय, अप्रत्याख्यानावररणका उदय और प्रत्याख्याना
वरणका उदय ।
इसमें से अनन्तानुबन्धीउदयजनित श्रसंयमसे चारित्रकी घातक अप्रत्याख्यानावरणआदि का उदय अनन्तप्रवाहरूप हो जाता है और निद्रानिद्रा आदि २५ कर्मप्रकृतियों का बंध होता है । कहा भी है
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"ण चाणताणुबंधिचक्क वावारो चारिते णिष्फलो, अपच्चक्खाणादिअणंतोदयपवाहकारणस्स णिष्फलत्त - विरोहा ।" धवल पु० ६ पृ० ४३ )
चारित्र में अनन्तानुबंधीचतुष्कका व्यापार निष्फल भी नहीं है, क्योंकि चारित्र के घातक प्रप्रत्याख्यानादि के उदयरूप अनन्तप्रवाह के कारणभूत अनन्तानुबंधीकषाय के निष्फलत्व का विरोध है ।
"पंच विंशतिप्रकृतीनामनन्तानुबन्धिकषायोदयकृतासंयमप्रधानात्रवाणामेकेन्द्रियादयः सासादनसम्यग्दृष्टयन्ता arter: " ( सर्वार्थसिद्धि ९/१ )
अनन्तानुबन्धीकषायोदय कृत असंयम से मुख्यरूप से २५ प्रकृतियों का आस्रव होता है । इन प्रकृतियों का एकेन्द्रिय से लेकर सासादनगुणस्थान तक के जीव बन्ध करते हैं ।
"प्रत्याख्यानं संयमः, न प्रत्याख्यानमप्रत्याख्यानमिति ।" ( ध० पु० ६ पृ० ४३ )
प्रत्याख्यान संयम को कहते हैं । जो प्रत्याख्यान रूप नहीं वह अप्रत्याख्यान है ।
अतः अनन्तानुबन्धी व अप्रत्याख्यानावरण कषायोदय कृत १२ प्रकार का असंयम होता है, क्योंकि चतुर्थ गुणस्थान तक पाँच इन्द्रिय और छठे मन के विषयों का त्याग नहीं है तथा पाँच स्थावरकाय और छठे सकाय की हिंसा से विरक्तता नहीं है ।
णो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वापि ।
जो सद्दहरि जितं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥ २९ ॥ ( गो० जी० )
जो इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस स्थावरजीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है, वह अविरत सम्यग्दष्टि है ।
"असंजमपच्चओ दुविहो इंदियासंनम-पाणासंजमभेएण । तत्थ इंदियासंजमो छव्यिहो परिस-रसरूव-गंधसद्द-गोइंदियासंजम भेएण । पाणासंजमो वि छव्विहो पुढवि आउ-तेज- बाउ-वणफदितसा संजम भेएण असंजमसन्वसमासोवारसं ।" ( धवल पु० ८ पृ० २१)
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