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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : केवलज्ञान द्वारा अनादि अनादिरूप से तथा अनंत अनन्तरूप से जाना गया है
शंका-यदि केवलज्ञान के द्वारा समस्त लोक अलोक तथा भूतकाल व भविष्यत्काल के समस्त समय जान लिये गये हैं तो समस्त काल सान्त व सादि हो जायगा। आकाश के प्रदेश अनन्त हैं, भूतकाल अनादि है और भविष्यत्काल अनन्त है, यह सब उपदेश व्यर्थ हो जायगा?
समाधान-आकाश के प्रदेश अनन्त हैं, भूतकाल प्रवाहरूप से अनादि है, भविष्यत्काल भी प्रवाहरूप से अनन्त है. ऐसा जिनेन्द्रदेव का उपदेश है। आज्ञासिद्ध इन तत्त्वों को ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि जिनेन्द्र भगवान अन्यथावादी नहीं होते हैं।
सूक्ष्म जिनोवितं तत्त्वं हेतुभिर्नेव हन्यते । आज्ञासिद्ध'तु तग्राह्य नान्यथावादिनो जिनाः ॥५॥ ( आलापपद्धति )
जिनेन्द्र भगवान के वचन सूक्ष्म हैं। उनको कुतर्कों के द्वारा खंडित नहीं किया जा सकता। उन आज्ञासिद्ध सक्षमतत्वों को ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि जिनेन्द्र-भगवान अन्यथावादी नहीं हैं।
जिनेन्द्र-भगवान ने जैसा उपदेश दिया है वैसा ही जाना है, क्योंकि वस्तुस्वरूप वैसा ही है। भूतकाल अनादि है; अनादिरूप से केवली ने जाना है और अनादि का उपदेश दिया है । भूतकाल न सादि है, न सादिरूप से जाना गया है और न सादि का उपदेश है। इसीप्रकार अनन्त के विषय में जान लेना चाहिये।
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भतकालीनपर्यायों का प्रध्वंसाभाव है, केवली ने प्रध्वंसाभावरूपसे जाना है और प्रध्वंसाभाव का उपदेश दिया है। इसी प्रकार भावीपर्यायों का प्राक-प्रभाव है, केवली ने प्राक-अभावरूपसे जाना है और प्राक-अभाव का उपदेश दिया है।
–णे. ग. 11-11-71/XII/ अ. कु. जैन केवलज्ञान के अविभागी प्रतिच्छेदों में हानि-वृद्धि नहीं होती शंका-अगुरुलघुगुण के द्वारा केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों में षट्गुणहानिवृद्धि होती रहती है। केवलज्ञान के अविभागीप्रतिच्छेदों की संख्या उत्कृष्ट अनन्तानन्त कहना उचित नहीं है, क्योंकि जघन्य व उत्कृष्ट संख्या एक होती है और मध्यम संख्या के अनेक भेद होने के कारण अनेक होती हैं?
समाधान-केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों में हानि-वृद्धि नहीं होती है, क्योंकि स्वभावअर्थपर्याय मात्र अगुरुलघुगुण में हानि-वृद्धि के कारण होती है । कहा भी है"अगुरुलघुविकाराः स्वभावार्थपर्यायास्ते द्वादशधा षड्वृद्धिरूपाः षड्हानिरूपाः ।"
अगुरुलहुगा अणंता समयं समयं समुन्भवा जे वि ।
दव्वाणं ते भणिया सहावगुण पज्जया जाण ॥ २२ ॥ ( नय चक्र ) अगुरुलघुगुण अनन्तअविभाग प्रतिच्छेदवाला है । उस अगुरुलघुगुण में प्रति समय पर्यायें उत्पन्न होती रहती हैं। अगूरुलघुगुरण की पर्यायों को शुद्धद्रव्य की स्वभावपर्याय जानना चाहिये।
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