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त्यक्तित्व और कृतित्व ]
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विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान को दर्शनपूर्वक होने का प्रसंग आयगा, किन्तु किसी भी प्राचार्य ने मनःपर्ययदर्शन का कथन नहीं किया। अतः विपुलमतिमनःपर्य यज्ञान भी ईहामतिज्ञानपूर्वक होता है ।
-पलाचार 77-78/ ज. ला. जैन, भीण्डर
मनःपर्ययज्ञानी के ज्ञान तो एक, पर दर्शन ३ होते हैं शंका-धवल पु० २ मनःपर्ययज्ञान के 'आलाप' में ज्ञानमार्गणा में मात्र एकज्ञान बतलाया है और दर्शनमार्गणा में तीनदर्शन का कथन है । एकज्ञानलब्धि को अपेक्षा कहा है या उपयोग की अपेक्षा ? यवि लब्धि की अपेक्षा कथन है तो चारज्ञान कहने चाहिये थे, क्योंकि उसके मति, श्रत व अवधिज्ञान का भी क्षयोपशम है। यदि उपयोग की अपेक्षा कथन है तो तीनदर्शन नहीं कहे जा सकते, क्योंकि ज्ञानोपयोग के समय दर्शनोपयोग संभव नहीं है।
समाधान-धवल पुस्तक २ में ज्ञानमार्गणा व दर्शनमार्गणा का कथन क्षयोपशम की अपेक्षा है, अन्यथा मनःपर्ययज्ञान का काल कुछ कम पूर्वकोटि संभव नहीं हो सकता। कहा भी है
"मणपज्जवणाणी केवलणाणी केवचिरं कालादो होंति ? उक्कस्सेण पुस्खकोडी देसूणा ॥" जीव मनःपर्ययज्ञानी कितने काल तक रहते हैं ? अधिक से अधिक कुछ कम पूर्वकोटिवर्ष तक जीव मनःपर्ययज्ञानी रहते हैं।
यह सत्य है कि जिसके मनःपर्ययज्ञान का क्षयोपशम होगा उसके मति, श्रुत व अवधिज्ञानों का क्षयोपशम होगा. अतः चार ज्ञान कहने चाहिये थे, किन्तु मनःपर्ययज्ञान के 'आलाप' में मनःपर्ययज्ञान की विवक्षा होने से एक ज्ञान का कथन किया गया है।
-जं. ग. 18-3-76/......../ र. ला. जैन, मेरठ अवधिज्ञान एवं मनःपर्ययज्ञान से विषयीकृत द्रव्य एवं मतभिन्न्य
का-अवधिज्ञान के विषय के प्रकरण में उत्कृष्ट अवधि का द्रव्य धवला में (पृ० ९।४८) परमाणु बताया है। तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य ॥ त० सू० १२८ के अनुसार जो अवधिज्ञान के द्वारा उत्कृष्टतः द्रव्य जाना गया उसका अनन्तवा भाग अर्थात् परमाणु का अनन्तवाँ भाग द्रव्य यानी परमाणु का अनन्तवाँ शक्त्यंश मनःपर्ययज्ञान का विषय होना चाहिए। कहा भी है-"जैसा परमाणु अवधिज्ञान जान्या तिसके अनन्तवें भाग फू मनःपर्ययजान जाने है । एक परमाणु में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण के अनन्तानन्त अविभागप्रतिच्छेद हैं। तिनिके घटने-बधने की अपेक्षा अनन्तका माग सम्भवे है।" [ सर्वार्थ सिद्धिवच निका १।२८।८८ ] परन्तु जीवकाण्ड [ गा० ४५४ ], आदि में मनःपर्यय का विषय स्कन्ध कहा है । धवला [ पु० ९।९६ ], श्लोकवातिक [ पु० ४ पृ० ६६ ] आदि में विपुलमति का विषय भी स्कन्ध कहा गया है। फिर सर्वावधि का ‘परमाणु' विषय कैसे माना जाय ? अथवा, "तवनन्तमागे मनःपर्ययस्य" को किस विधि से माना जाय ? कृपया समझाइए।
समाधान-अवधिज्ञान व मनःपर्ययज्ञान के द्रव्य के विषय में भिन्न-भिन्न मत हैं । तत्त्वार्थसूत्रकार, सर्वार्षमितिकार आदि टीकाकारों का मत है कि सर्वावधिज्ञान का विषय स्कन्ध है। अकलंकदेव ने राजवातिक अध्याय
सत्र २४ वातिक २की टीका में कहा है-कार्मणद्रव्यानन्तभागोऽन्त्यः सर्वावधिना ज्ञातः तस्य पुनरनन्तभागी.
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