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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थ- वे मुनि प्रसन्नचित्त होते हुए कहते हैं कि अब दुषमाकाल का ( पंचमकाल का ) अन्त आ चुका है, तुम्हारी और हमारी तीन दिन की आयु शेष है, और यह अन्तिम कल्की है ।
- जै. सं. 21-3-57 // रा. दा. कैराना
सभी सम्यक्त्वी जीवों के अवधि नहीं होती
शंका - षट्खण्डागम सत्प्ररूपणा ज्ञानमार्गणा में दिया है कि चौथे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक सर्व केही मति तअवधिज्ञान होता है। क्या अवधिज्ञान सर्व जीवों में माना जायगा ? यह किस अपेक्षा से दिया है ?
समाधान -- षट् खण्डागम सत्-प्ररूपणा ज्ञानानुयोगद्वार सूत्र १२० निम्नप्रकार है
आभिणिबोहियणाणं सुदणाणं ओहिणाणमसंजदसम्माइट्टिप्पहृदि जाव खीणकसायवीदराग- छमस्था त्ति ॥ १२० ॥
अर्थ - अभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीनों असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागद्यद्मस्थगुणस्थान तक होते हैं ।
इस सूत्र में तो यह बतलाया है कि मति, श्रुत और अवधिज्ञान में चौथे से बारहवें गुणस्थान तक होते हैं । इसका यह अभिप्राय है कि जिन जीवों के अवधिज्ञान है उनके चौथे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक गुणस्थान हो सकते हैं, किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि चौथे से बारहवें गुणस्थानवर्ती सब जीवों के अवधि - ज्ञान अवश्य होगा ।
श्री वीरसेन आचार्य ने इस सूत्र की धवल टीका में भी लिखा है
"विशिष्ट सम्यक्त्वं तद्ध ेतुरिति न सर्वेषां तद्भवति ।"
अर्थ - विशिष्ट सम्यक्त्व ही अवधिज्ञान की उत्पत्ति का कारण है । इसलिये सभी सम्यग्डष्टि तियंच और मनुष्यों में प्रवधिज्ञान नहीं होता है ।
- जै. ग. 23-9-65 / IX / ब्र. प. ला.
'अवधि अधिकतर नीचे के विषय को जानती है, इसका अभिप्राय
शंका-ज्ञानपीठ से प्रकाशित सर्वार्थसिद्धि अध्याय १ सूत्र ९ की टीका में लिखा है- " अधिकतर नीचे के विषय को जानने वाला होने से अवधिज्ञान कहलाता है” यहाँ पर 'अधिकतर नीचे के विषय' से क्या अभिप्राय है ?
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समाधान - 'अधिकतर नीचे का विषय ' इस सम्बन्ध में श्री वीरसेन आचार्य ने निम्न प्रकार लिखा है"अवाग्धानादवधिः । अधोगौरवधर्मत्वात् पुद्गलः अवा नाम तं दधाति परिच्छिनत्तीति अवधिः । "
यहाँ पर यह कहा गया है कि अवधिज्ञान का मुख्यविषय पुद्गल है। पुद्गल भारी होने से नीचे की ओर जाता है | अतः 'नीचे का विषय से पुद्गलद्रव्य का अभिप्राय है ।
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