SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । आदि के पाँच गुणस्थान होते हैं। जो जीव द्रव्य से पुरुष हैं, किन्तु भाव से स्त्री हैं ऐसी मनुष्यनियों के वस्त्र का त्याग, उत्तम संहनन आदि संभव हैं, उनके संयम भी हो सकता है और चौदह गुणस्थान भी हो सकते हैं। गोम्मटसार में ऐसी मनुष्यनी के चौदह गुणस्थान कहे हैं । विशेष के लिये धवल पु० १ सूत्र ९३ की टीका देखनी चाहिये । तिर्यंचनी का कथन भी भाव की अपेक्षा से है, क्योंकि कर्म-भूमियों के तियंचों में भी वेद-वैषम्य पाया जाता है। देवों में वेद-वैषम्य नहीं है। देवों में जैसा द्रव्यवेद है वैसा ही भाववेद होता है । देवांगनाओं का कथन यद्यपि भाव की अपेक्षा से है किन्तु द्रव्यवेद की अपेक्षा से भी कोई विषमता नहीं आती। -जें. ग. 12-12-63/IX/प्र.च. कषाय-मार्गरणा पत्थर की रेखा के समान संज्वलन कषाय शंका-गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २८४ की टीका में पं० खूबचन्दजी ने फुटनोट तथा भावार्थ में लिखा कि अनन्तानबन्धी आदि चारप्रकार के क्रोध में प्रत्येक के चार-चार भेद समझना चाहिये। इसका अर्थ यह हआ कि संज्वलनक्रोध भी चार प्रकार का होता है। अर्थात् संज्वलनक्रोध में भी पत्थर की रेखा, पृथिवी की रेखा, धुलि और जल रेखा होती है, किन्तु गाथा २९२ में लिखा है कि पत्थर की रेखा समान क्रोध में केवल कृष्णलेश्या होती है और गाथा २९३ में आयुबंध केवल नरक का होता है। जबकि गाथा ५३२ के अनुसार संज्वलनक्रोध केवल छठे गुणस्थानवर्ती मुनिके होता है और उनके सिर्फ तीन शुभ लेश्या ही होती हैं, कृष्ण लेश्या नहीं होती और मरकर भी स्वर्ग में जाता है। संज्वलनकषाय में पत्थर को रेखा, कैसे संभव है। समाधान-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी आदि चारों प्रकार के क्रोध, मान, माया व लोभ का उदय रहता है। तीसरे चौथे गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी का उदय नहीं रहता, किन्तु अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन इन तीन प्रकार की कषाय का उदय रहता है । पाँचवेंगुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन दो प्रकार की कषायका उदय रहता है । छठे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक मात्र संज्वलन का उदय रहता है। __इस प्रकार असंयतगुणस्थानों में भी संज्वलनकषाय के सर्वघातियास्पर्धकों का उदय रहता है जिनमें पत्थर की रेखा समान संज्वलनकषाय का उदय भी संभव है। संज्वलनकषाय में सर्वघातियास्पर्धक भी होते हैं जो प्रथिवीअस्थि-शैल-रेखा समान होते हैं। छठे गुणस्थान में संज्वलन के देशघातिया स्पर्धकों का ही उदय होता है। -णे. ग. 15-11-65/IX/ र. ला. जैन, मेरठ लोभ कथंचित् स्वर्ग व मोक्ष का कारण है शंका-प्रवचनसार पृ० ४४८ पर "लोहो सिया पेज्ज' ऐसा लिखा है इसका प्रयोजन क्या है ? . समाधान-जयधवल पुस्तक १ पृ० ३६९ पर श्री यतिवृषभाचार्य ने चूणिसूत्र में कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy