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________________ २५८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ! योग में, मोहनीयकर्मोदय या अनुदय निमित्त नहीं है । तेरहवें गुणस्थान तक शरीरनामकर्मका उदय पाया जाता है अतः तेरहवें गुणस्थान तक योग है। तदियेक्क वज्जणिमिण थिरसुहसरगदि उरालतेजदुर्ग। संठाणं बग्णागुरुचउक्क पत्तेय जोगिम्हि ॥२७१॥ गो. क. इस गाथा में यह बतलाया है कि तेरहवेंगुणस्थान में औदारिकशरीर, औदारिकशरीरअङ्गोपांग, तेजसशरीर व कार्मणशरीर की उदय से व्युच्छित्ति है अर्थात् तेरहवें गुणस्थान में इन तीनशरीर का उदय रहता है, चौदहवें गुणस्थान में इनका उदय नहीं रहता है । गाथा २६६ में कहा है कि वैक्रियिक शरीर की उदय व्युच्छित्ति चौथे गुणस्थान में होती है, गाथा २६७ में कहा कि आहारक शरीर की उदय व्युच्छित्ति छठे गुणस्थान में हो जाती है। सकषाय जीव के योग इच्छा पूर्वक ही हो, ऐसा भी नियम नहीं है। -जे. ग. 8-1-76/VI/ रो. ला. मि. एक प्रात्मप्रदेश के सकम्प होने पर शेष प्रदेशों के सकम्पत्व का नियम नहीं है शंका-आत्मा का एक प्रदेश सकम्प होने से क्या आत्मा के समस्त प्रदेशों में कम्पन होता है ? समाधान-प्रात्मा के सर्व ही प्रदेशों में कम्पन हो ऐसा नियम नहीं है, क्योकि प्रात्मप्रदेश स्थित और अस्थित दो प्रकार के हैं । कहा भी है "स्थितास्थितवचनात् । भवान्तर-परिणामे सुखदुःखानुभवने क्रोधाविपरिणामे वा जीवप्रदेशानाम् उद्धवनिधबपरिस्पन्दस्याप्रवृत्तिः स्थितिः प्रवृत्तिरस्थितिरित्युच्यते । तत्र सर्वकालं जीवाष्टमध्यप्रदेशा निरपवादाः सर्वजीवानी स्थिता एव. केवलिनामपि अयोगिनां सिद्धानां च सर्वे प्रवेशाः स्थिता एव । व्यायामःखपरितापोद्रेक परिणतानां जीवानां यथोक्ताष्टमध्यप्रदेश-वजितानाम् ता इतरे प्रदेशाः अस्थिता एव, शेषाणां प्राणिनां स्थिताश्चास्थिताश्चा" रा. वा. ५/८/१६। अर्थ-पागम में जीव के प्रदेशों को स्थित और अस्थित दो रूप में बताया है। सुख दुःख का अनुभव भवपरिवर्तन या क्रोध आदि दशा में जीव के प्रदेशों की उथलपुथल को अस्थित तथा उथलपुथल न होने को स्थित कहते हैं। जीव के आठ मध्यप्रदेश सदा निरपवादरूप से स्थित ही रहते हैं। अयोगकेवली और सिद्धों के सभी प्रदेश स्थित हैं। व्यायाम के समय या दुःख, परिताप आदि के समय जीवों के उक्त आठ मध्यप्रदेशों को छोडकर बाकी प्रदेश अस्थित होते हैं। शेष जीवोंके प्रदेश स्थित और अस्थित दोनों प्रकार के हैं। इसी बात को धी नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने भी कहा है सम्वमरूवी दव्वं अवद्विवं अचलिआ पवेसा वि। रूबी जीवा चलिया तिवियप्पा होति हु पवेसा ॥५९२॥ गो. जी. सम्पूर्ण अरूपी द्रव्योंके प्रदेश अवस्थित और प्रचलित हैं। किन्तु रूपी जीवद्रव्य के अर्थात् संसारीजीव के प्रदेश तीन प्रकार के हैं-चल, अचल, तथा चलाचल । अर्थात् पाठ मध्यप्रदेशों के अतिरिक्त शेष सर्वप्रदेश चल हैं: सर्वप्रदेश अचल हैं तथा कुछ चल हैं कुछ अचल हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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