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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : योग प्रौदयिक भाव है, किन्तु बारहवें गुण० तक उपचारतः क्षायोपशमिक भाव भी है
शंका- सन् १९६४ की चर्चा में श्री पं० कैलाशचन्दजी ने तेरहवें गुणस्थान में योग को क्षायिक कहा था, किन्तु २३ दिसम्बर १९६५ के जैनसदेश में तेरहवें गुणस्थान में योग को औदयिक और उपचार से क्षायोपशमिक तथा अन्य गुणस्थानों में मात्र क्षायोपशमिक कहा है। इस पर शंका यह है कि छवस्थ जीवों के योग कौन भाव है
और सयोगकेवली के कौन भाव है ? क्या श्री वीरसेन आचार्य का मत श्री पुष्पदन्त, भूतबलि आदि अन्य आचार्यों के मत से विपरीत है ?
समाधान-जिनागम में अपेक्षा कृत कथन पाया जाता है। अपेक्षा को न समझने के कारण हम क्षुद्र प्राणी जो महानाचार्य की पद-रज के समान भी नहीं हैं, इन महानाचार्यों की कथनी पर नाना प्रकार के दोषारोपण करने लगते हैं। श्री वीरसेन आदि महानाचार्य हुए हैं जो असत्य को महापाप समझते थे उसका सर्वदेश त्यागकर जिन्होंने सत्य महाव्रत ग्रहण किया था, जिनको गुरु परम्परा से उपदेश प्राप्त हुआ था, उसीको उन्होंने लिपिबद्ध किया है, जिसका उनको उपदेश प्राप्त नहीं हुआ था उस विषय में अपनी ओर से कुछ न लिखकर यह लिख दिया कि उपदेश प्राप्त न होने के कारण इस विषय का ज्ञान नहीं है। ऐसे महानाचार्यों की कथनी पर हमको नत मस्तक हो श्रद्धान कर लेना चाहिये। किसी भी आचार्य ने किसी से राग के वश या किसी के मत को पुष्ट करने के लिये या पक्षपात के कारण कोई असत्य कथन नहीं किया है। मेरी तो इस प्रकार की श्रद्धा है इसीलिये जिनवाणी को सर्वोपरि समझता हूँ। उसके कथन के सामने न कोई तर्क है, न कोई युक्ति है ।
षट्खंडागम के दूसरे खण्ड क्षुद्रकबंध के स्वामित्वअनुगम के सूत्र ३२ में यह शंका उठाई गई है कि योगमार्गणा अनुसार जीव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी कैसे होते हैं ? इस सूत्र की टीका में श्री वीरसेन आचार्य ने योग को औपशमिक प्रादि पाँचों भावों के मानने से क्या-क्या दोष आते हैं उनको बतलाकर शंका को स्पष्ट किया है। जनसंदेश २३ दिसम्बर १९६५ प्र० ३५२ कालम ३ में यह टीका उद्धृत की गई है । न मालूम क्यों बीच में से यह वाक्य छोड़ दिया गया है-छोड़ा हुआ वाक्य इस प्रकार है-"योग घातिकर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न भी नहीं है. क्योंकि इससे भी सयोगीकेवली में योगके अभाव का प्रसंग आ जायगा।"
यदि यह वाक्य न छुटता तो संभवतः इस प्रकार का लेख जनसंदेश में न लिखा जाता। पूर्वोक्त शंकारूपी सूत्र का उत्तर देते हुए श्री भूतबलि आचार्य ने सूत्र ३३ द्वारा यह उत्तर दिया है कि "क्षयोपशमलब्धि से जीव मनोयोगी. वचनयोगी और काययोगी होता है।" सूत्र होने के कारण इसमें संक्षेप रूप से कथन है। इसकी विशेष व्याख्या के लिये श्री वीरसेन आचार्य ने धवल टीका रची है। किन्तु उनसे पूर्व श्री पूज्यपाद तथा श्री अकलंकदेव भी महानाचार्य हुए हैं । उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों की विशेष व्याख्या के लिये सर्वार्थ सिद्धि तथा तत्वार्थराजवातिक टीका रची हैं । उक्त दोनों प्राचार्यों के समक्ष भी षट्खण्डागम मूल ग्रन्थ था।
तत्त्वार्थ सूत्र के छठे अध्याय में आस्वतत्त्व का कथन है। आस्रव का कारण योग है अतः "कायवाड्मनः कर्म योगः।" अर्थात मन, वचन, काय की क्रिया योग है। ऐसा प्रथम सूत्र रचा गया। इस सूत्र में मात्र योगका लक्षण कहा गया है यह नहीं बतलाया गया है कि 'योग' कौनसा भाव है। अत: इस सूत्र के टीकाकारों ने भी इस सत्र की टीका में स्पष्ट रूप से यह विवेचन नहीं किया कि योग कौनसा भाव है, क्योंकि उनके समक्ष यह प्रश्न ही नहीं था। इन दोनों महान् प्राचार्यों ने योग के बाह्य और पाभ्यन्तर दो कारण बतलाये हैं। शरीरनामकर्म के उदय से प्राप्त हई काय वचन, मनोवर्गणाओं में से किसी एक जाति की वर्गणाओं का आलम्बन तो बाह्य कारण है और बीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम अन्तरंग कारण है। वचनयोग और मनोयोग में ज्ञानावरण के क्षयोपशम को
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