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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] बादरहुम णिगोदा बद्धा पुट्ठा य एयमेएण । ते हु अनंता जीवा मूलय हल्लयादीहि ॥ १२६ ॥ ध० १४ / २२६-२३१ ॥ साधारण आहार और साधारण उच्छ्वास निःस्वास का ग्रहण यह साधारण ( निगोदिया ) जीवों का साधारण लक्षण कहा गया । एक जीव का जो अनुग्रह है वह बहुत साधारण ( निगोदिया ) जीवों का है और इसका भी है । तथा बहुत जीवों का जो अनुग्रहण है, वह मिलकर इस विवक्षित जीव का भी है । एक साथ उत्पन्न होने वाले निगोदिया जीवों के शरीर की निष्पत्ति एक साथ होती है, एक साथ अनुग्रह होता और एक साथ उच्छ्वास- निःश्वास होता है। जिस शरीर में एक जीव मरता है वहां अनन्त जीवों का मरण होता है और जिस शरीर में एक जीव उत्पन्न होता है, वहीं अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती है बादर निगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव परस्पर में बद्ध और स्पृष्ट होकर रहते हैं । तथा वे अनन्त जीव हैं जो मूली थूवर और आर्द्रक आदि के निमित्त से होते हैं ।। १२२-१२६॥ । टीका - एक शरीर में स्थित बादर निगोद जीव वहाँ स्थित अन्य बादर निगोद जीवों के साथ तथा एक शरीर में स्थित सूक्ष्म निगोद जीव वहाँ स्थित अन्य सूक्ष्म निगोद जीवों के साथ बद्ध अर्थात् समवेत होकर रहते हैं । वह समवाय देश- समवाय और सर्व समवाय के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से देश समवाय प्रतिषेध करने के लिये कहते हैं - 'पुट्ठा य एयमेएण' परस्पर सब अवयवों से स्पृष्ट होकर ही रहते हैं । श्रबद्ध और प्रस्पृष्ट होकर वे नहीं रहते । धवल पु० १४ पृ० २३१ । वे [ २४३ Jain Education International प्रकरणानुसार " निगोद" शब्द का तीन अर्थों में प्रयोग - जै. ग. 6-4-72/VII / अ. कु. शंका- वनस्पति स्थावर नामकर्म के उदय से वनस्पति काय स्थावर जीवों को उत्पत्ति होती है । और इन वनस्पतिकायिक जीव के साधारण और प्रत्येक वनस्पति ऐसे दो भेद हैं । साधारण वनस्पति काय जीवों के free fनगोद और इतर निगोद ऐसे दो भेद हैं। ऐसा भी बताते हैं कि भैंस बैलादिकों के मांस के आश्रित उसी जाति के निगोदिया जीव रहते हैं। और भी कहा है कि देव नारकी आदि इन आठ शरीर के सिवाय बाकी सब संसारी जीवों के शरीर प्रतिष्ठित होते हैं । इसलिये यहाँ प्रश्न उठता है कि वनस्पति नाम के स्थावर नाम कर्म के उदय से वनस्पति काय जीवों में स्थावर जीवों की उत्पत्ति होती रहती है यह ठीक है परन्तु यहाँ मनुष्य और तिर्यञ्च त्रस जीवों के शरीर में भी निगोदिया जीवों की उत्पत्ति बताते हैं । गाय भैंसादिकों की बिना पकी या पकी हुई तथा पकती हुई भी मांस की उलियों में उसी जाति के संमूर्च्छन ( निगोद ) जीवों का निरन्तर ही उत्पाद होता रहता है । यहाँ इन त्रस जीवों को भी वनस्पति स्थावर नाम कर्म का उदय होना यह कैसे सम्भव है ? समाधान - धवल पु० १४ में निगोद का इस प्रकार कथन पाया जाता है "के णिगोदा णाम ? पुलवियाओ णिगोदा ति भणति । संपहि पुलवियाणं एत्थ सरूवपरूवणं कस्सामो । तं जहा बंधो अंडरं आवासो पुलिविया णिगोदसरीरमिदि पंच होंति । तत्थ बादरणिगोदाणामासयभूदो बहुए हि वक्खारएहि सहियो वलंजंतवाणियकच्छउ उसमाणो मूलयथूहल्लयादिववएसहरो बंधोणाम । ते च खंधा असंखेज्जलोगमेत्ता, बादर - णिगोदपदिट्टिदाणमसंखेज्जलोग मे तसंखुवलंभादो । तेसि खंधाणं ववएसहरो तेसि भवाणमवयवा वलंजुअकच्छउडपुध्वावर भागसमाणा अंडरं नाम । अंडरस्स अंतोट्ठियो कच्छउडंडरंतोट्ठियवक्खार समाणो आवासो णाम । आवास मंतरे संट्टिवाओ कच्छउ डंडरबक्खारंतोट्ठियपिसिवियाहि समाणाओ पुलवियाओ णाम । एक्केक्क म्हि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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