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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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शंका-स० सि० २/७ [ सम्पा० पं० फूलचन्दजी शास्त्री ] के विशेषार्थ से यह शंका होती है कि आभ्यतर निवृत्तिरूप जो आत्मप्रदेश हैं क्या वे सब भी अपने स्थान से हटकर उनके स्थान पर अन्य आत्मप्रदेश आकर आभ्यन्तर निवृत्ति रूप बन जाते हैं या पूर्व निवृत्तिरूप आत्मप्रदेशों में से कुछ आत्मप्रवेश तो ज्यों के त्यों निवृत्तिरूप बने रहते हैं और कुछ आत्मप्रदेश भ्रमण कर जाते हैं तथा उनके स्थान पर अन्य आत्मप्रदेश पूर्व निवृत्तिरूप आत्मप्रदेशों के साथ हो जाते हैं ?
समाधान---आत्मा के ८ मध्यप्रदेश तो हमेशा अचल हैं, अर्थात् उनका पारस्परिक सम्बन्ध नहीं छूटता', किन्तु शेष आत्मप्रदेश चल भी हैं अथवा चलाचल भी हैं। अभिप्राय यह है कि शेष आत्मप्रदेशों में से कुछ चलायमान हो जाते हैं और कुछ अचल रहते हैं, अथवा ( कदाचित ) शेष सब ही प्रात्मप्रदेश चलायमान हो जाते हैं। कहा भी है
"सर्वकालं जीवाष्टमध्यप्रदेशा निरपवादाः सर्वजीवानां स्थिता एव, केवलीनामपि अयोगिनां सिद्धानां च सर्वे प्रदेशाः स्थिता एव, व्यायामदुःखपरितापो कपरिणतानां जीवानां यथोक्ताष्टमध्यप्रदेशजितानाम् इतरे प्रदेशाः अस्थिता एव, शेषाणां जीवानां स्थिताश्चास्थिताश्च ।" रा०या० ५८।१६।
अर्थ-सब जीवों के ८ मध्य के प्रदेश सर्वकाल अचल हैं, अयोगिकेवली तथा सिद्ध जीवों के सर्व प्रदेश अचल हैं। व्यायाम, दुःख परिताप और उद्रेक परिणत जीवों के अष्ट मध्यप्रदेशों के अतिरिक्त शेष सर्व प्रदेश चल हैं। शेष जीवों के कुछ प्रदेश चल हैं और कुछ अचल हैं।
इसप्रकार व्यायाम आदि अवस्था में तो इन्द्रिय निवृत्तिरूप सब ही आत्मप्रदेश भ्रमण करने के कारण चल हैं। इतर अवस्था में इन्द्रिय निवृत्तिरूप प्रात्मप्रदेशों में से कुछ भ्रमण कर जाते हैं और कुछ अपने स्थान पर स्थित रहते हैं। निवृत्तिरूप जो आत्मप्रदेश भ्रमण कर जाते हैं उनके स्थान पर दूसरे प्रात्मप्रदेश प्राकर निवृत्तिरूप हो जाते हैं।
[ विशेष के लिए देखो धवल पु० १ पृ० २३४-२३६ तथा पु० १२ पृ० ३६४-३६८ ]
सर्व प्रात्मप्रदेशों में इन्द्रियावरण ( ज्ञानावरण ) कर्म का क्षयोपशम रहता है अतः प्रत्येक आत्मप्रदेश ( विवक्षित किसी भी ) निवृत्तिरूप कार्य कर सकता है।
-पताघार 77-78/ ज. ला. णन, भीण्डर प्राभ्यन्तरनिवृत्ति रूप प्रात्मप्रदेश भिन्न-२ होते रहते हैं शंका-सर्वार्थसिद्धि २०१७ के विशेषार्थ में श्री श्रद्धय पण्डित फूलचन्दजी ने लिखा है कि "नियत आत्मप्रदेश ही सदा विवक्षित इन्द्रियरूप बने रहते हैं, यह नहीं कहा जा सकता, किन्तु प्रदेश परिस्पन्द के अनुसार प्रतिसमय अन्य अन्य प्रदेश आभ्यन्तर निर्वृत्तिरूप होते रहते हैं।" क्या यह सही है ? यदि हाँ तो कैसे ? क्या बाह्य निवृत्तिरूप भी अन्य-अन्य ही पुद्गल होते रहते हैं ?
समाधान-तेरहवें गुणस्थान तक शरीर नामकर्म का उदय रहता है, अतः तेरहवें गुणस्थान तक योग रहता है। इसी कारण त्रयोदश गुणस्थानवर्ती अर्हन्त की "सयोगजिन" संज्ञा है। योग का लक्षण इस प्रकार है
१.आत्मपदेशों का परिरापन्दन होने पर प्रदेश से प्रदेशान्तर होता ही है। (यानी परिस्पन्दन में स्थानान्तर होता
है। [ जनगजट १४-२-६६ ई0, 0 रतनषाद मुख्तार ]
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