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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
के पश्चात् अवधिज्ञान होता है तो उस दर्शन को "अवधिज्ञान" संज्ञा दी जाती है । इसलिये अठारहवें सूत्र का सम्बन्ध मतिज्ञान लब्धि तथा मतिज्ञानोपयोग के अतिरिक्त अन्य ज्ञान लब्धि व अन्य ज्ञानोपयोग से नहीं है और न ही दर्शन लब्धि या दर्शनोपयोग से है ।
पत्राचार / अगस्त ७७ / ज. ला. जैन, भीण्डर
भावेन्द्रिय व भावमन को पौद्गलिक कहने का कारण
शंका- इन्द्रिय व मन की सहायता से मतिज्ञान उत्पन्न होता है । दूव्य और भाव के भेद से इन्द्रिय व मन दो-दो प्रकार के हैं । भावेन्द्रिय तो ज्ञान स्वरूप है । फिर उसको पौद्गलिक क्यों कहा जाता है ?
समाधान - 'लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् ।' लब्धि और उपयोग रूप भावेन्द्रिय है ।
"ज्ञानावरणक्षयोपशमे सत्यात्मनोऽर्थग्रहणे शक्तिः लब्धिरुच्यते । आत्मनोऽर्थग्रहण उद्यमोऽर्थग्रहणे प्रवर्तनमर्थ प्रहरणे व्यापरणमुपयोग उच्यते । ननु इन्द्रियफलमुपयोगः, तस्य इन्द्रियफलभूतस्य उपयोगस्य इन्द्रियत्वं कथम् ? इत्याह-सत्यम् । कार्यस्य कारणोपचारात् ।" तत्त्वार्थ वृत्ति २/१८ ।
ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर आत्मा में अर्थ ग्रहण करने की शक्ति को लब्धि कहते हैं । अर्थग्रहण करने के लिये आत्मा का उद्यम अथवा प्रवृत्ति रूप व्यापार को उपयोग कहते हैं । कोई प्रश्न करता है कि उपयोग तो इन्द्रिय का फल है । इन्द्रियों के फल स्वरूप उपयोग को इन्द्रिय क्यों कहा गया है ? आचार्य कहते हैं - यद्यपि यह सत्य है तथापि कार्य में कारण का उपचार करके उपयोग को इन्द्रिय कहा गया है ।
पौगलिक द्रव्येन्द्रिय व ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम इन दोनों कारण होने पर भावेन्द्रिय होती है, क्योंकि भावेन्द्रिय का कारण पौद्गलिक है अतः भावेन्द्रिय को पौद्गलिक कहा जाता है ।
"भावमनोऽपि लब्ध्युपयोगलक्षणम् । तदपि पुद्गलावलम्बनं पौद्गलिकमेव ।" तत्त्वार्थवृत्ति ५/१९ लब्धि उपयोग लक्षण वाला भाव मन भी पुद्गल के अवलम्बन के कारण पौद्गलिक है ।
- जै. ग. 7-1-71 / VII / रो. ला. मि.
प्रथम से चतुर्दश गुणस्थान तक के जीव पंचेन्द्रिय होते हैं; इसका अभिप्राय
शंका-धवला में एक सूत्र है कि पहले गुणस्थान से १४ वे गुणस्थान तक पंचेन्द्रिय जीव होते हैं । आप इस ग्रन्थ को भाव की अपेक्षा मानते हों तो बतायें कि १३-१४ वे गुणस्थान में भावइन्द्रिय कैसे संभव है ? दृष्यइन्द्रिय संभव है सो आप धवला में दूध की अपेक्षा कथन मानते नहीं । इस सूत्र में भाव की अपेक्षा कैसे घटित होता है ?
समाधान - षट्खंडागम ग्रन्थ में भाव की अपेक्षा कथन है जैसा कि धवल पुस्तक १ पृष्ठ १३१ पर कहा है । शंकाकार का जिस सूत्र से अभिप्राय है वह सूत्र ३७, धवल पु० १ पृ० २६२ पर । यह सूत्र भी भाव की अपेक्षा है । १३-१४ वे गुणस्थान में पंचेन्द्रिय जाति नामकर्म का उदय रहता है । पंचेन्द्रिय जाति नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुये औदयिक भाव १३ वें १४ वें गुणस्थान में पाये जाते हैं । इस सूत्र ३७ में द्रव्येन्द्रिय या भावेन्द्रिय से
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