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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
आउकाइया सुहुमतेउकाइया सुहुमवाउकाइया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता य केवडि खेत्ते सव्वलोगे ॥२२॥"
-धवल पु० ४ पृ० ८७ । द्वादशांग के इन दोनों सूत्रों में यह बतलाया गया है कि एकेन्द्रिय जीवों तथा पृथिवीकायिक, जलकायिक अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पति कायिक जीवों का क्षेत्र सर्वलोक है।
सिद्ध जीव लोक के अंत में हैं अर्थात् सिद्ध क्षेत्र लोक के अन्त में है और एकेन्द्रिय जीवों का क्षेत्र सर्वलोक है, अतः सिद्धक्षेत्र में एकेन्द्रिय जीव भी पाये जाते हैं ।
-जें. ग. 1-6-72/VII/र. ला. गैन, मेरठ एकेन्द्रियों का निवास सर्वलोक में शंका-क्या एकेन्द्रिय तिर्यच समस्त लोक में रहते हैं ? यदि रहते हैं तो किस प्रकार ?
समाधान-एकेन्द्रिय तिर्यच समस्त लोक में रहते हैं। "इंदियाणुवावेण एइन्दिया वावरासुहमा पज्जता अपज्जत्ता केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे ॥१/३/१७॥ षखंडागम ।
अर्थ-इन्द्रियमार्गणा के अनुवाद से एकेन्द्रिय जीव, बादर एकेन्द्रिय जीव, सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव, पर्याप्त तथा अपर्याप्त कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्वलोक में ।
श्री वीरसेन आचार्य ने इस सूत्र की टीका में लिखा है"सत्वाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदा एइंदिया केवडि खेते? सव्वलोगे।" धवल पु० ४ पृ ८२।
अर्थ-स्वस्थान, वेदना-समुद्घात, कषाय-समुद्घात, मारणान्तिक-समुद्घात और उपपाद को प्राप्त एकेन्द्रिय जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्व लोक में रहते हैं।
-जें. ग. 8-1-70/VII/ रो. ला. मि. सर्प त्रीन्द्रिय जाति में परिगणित नहीं है
शंका-सर्प क्या तीन इन्द्रिय होता है ?
समाधान-सर्प पंचेन्द्रिय जीव होता है। आर्ष ग्रन्थों में सर्प को पंचेन्द्रिय लिखा है। यदि सर्प को तीन इन्द्रिय वाला जीव माना जाय तो वे मर कर नरक में उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि विकलत्रय जीवों का उत्पाद नरक में नहीं होता है। सर्प का उत्पाद नरक में होता है, अतः वह पंचेन्द्रिय-जीव है।
पढमधरंतम सण्णी पढमंविदियास सरिसओ जादि। पढमादीतदियंतं पक्खि भुयंगादि यायए तुरिमं ॥४/२८४॥ ति०५०
अर्थ-प्रथम प्रथिवी के अन्त तक असंज्ञी पंचेन्द्रिय जाता है। प्रथम और द्वितीय नरक में सरीसप (सांप) जाता है। पहिले से तीसरे नरक पर्यत पक्षी जाता है। चौथे नरक तक भूजंगादि जीव उत्पन्न होते है।
-जें. ग. 11-5-72/VII/... ....
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