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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त की बाईस हजार वर्ष, बादर अपकायिक पर्याप्त की सात हजार वर्ष, बादर तेजकायिक पर्याप्त की तीन दिवस, बादर वायुकायिक पर्याप्त की तीन हजार वर्ष, बादर प्रत्येक प्रतिष्ठित वनस्पतिकायिक पर्याप्त और बादर प्रत्येक अप्रतिष्ठित वनस्पतिकायिक पर्याप्त इन दोनों की १०,००० वर्ष है। बादर नित्यनिगोद पर्याप्त और बादर इतरनिगोद पर्याप्त इन दोनों की उत्कृष्ट प्रायु अन्तर्मुहूर्त है। देखो धवल पु०७ पृ. १३३-१४६
-जें. ग. 16-5-66/IX/ट. ला. जैन, मेरठ निगोदों का शरीर एवं प्राहार एक ( Common ) ही होता है शंका-निगोदिया जीवों का औदारिक शरीर पृथक्-पृथक होता है, क्योंकि उनका आहार पृथक् पृथक है, अर्थात् सब अलग-अलग आहार वर्गणा ग्रहण करते हैं ?
समाधान-विग्रहगति में निगोदिया जीव अनाहारक रहते हैं ( तत्त्वार्थसूत्र अ० २ सूत्र ३० ) । अनंतानंत निगोदिया जीवों का एक ही शरीर होता है और आहार भी एक ही होता है । (गो० जी० गाथा १९१ व १९२)। इन अनन्त निगोदिया जीवों के औदारिक शरीर व आहार पृथक्-पृथक् नहीं होते। यदि इनके औदारिक शरीर पृथक्-पृथक् हों तो अनन्तानन्त जीव असंख्यात प्रदेशी लोक में नहीं रह सकते थे।
-जं. ग. 10-7-67/VII/र. ला. गैन, मेरठ एकेन्द्रियों में चेतना पागम गम्य है शंका-पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजकायिक तथा वायुकायिक एकेन्द्रिय जीवों में चेतना कैसे जानी जाय ? जबकि जीव का लक्षण चेतना है । हम कैसे जानें कि इनमें जीव है, जिसका लक्षण चेतना है।
समाधान-भरतक्षेत्र में आजकल प्राय: सब जीवों के मति व श्रुतज्ञान है जो क्षयोपशमिक है अर्थात् मतिज्ञानावरण और श्रतज्ञानावरण कर्मों के देशघातिया स्पद्धकों का निरन्तर उदय रहता है। अतः ज्ञानावरा कर्म के उदय के कारण क्षेत्रांतरित, कालांतरित और सूक्ष्म आदि पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता। जैसे सुदर्शनमेह, माउन्ट एवरेस्ट, विदेहक्षेत्र, ज्योतिषलोक आदि क्षेत्रों का राम, रावण, राणाप्रताप आदि पूर्वजों का और परमाणु, द्विअणुक आदि सूक्ष्म पुद्गलों का तथा पर के मन में स्थितभावों का अथवा सूक्ष्मगुणों का हमको ज्ञान नहीं हो सकता, किंतु आगम प्रमाण से हमको ज्ञान हो जाता है । इसी प्रकार पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजकायिक तथा वायुकायिक एकेन्द्रिय जीवों में चेतना का ज्ञान आगमप्रमाण से हो जाता है। यदि इंद्रियजनित प्रत्यक्ष ज्ञान को ही प्रमाण माना जावे तो सांसारिक व्यवहार व मोक्षमार्ग सर्व का लोप हो जावेगा।
-जें. सं. 12-2-59/V/रा. के जैन, पटना भावेन्द्रियों का प्राधार [बाह्याधार] द्रव्येन्द्रियाँ हैं
शंका-इंद्रियों का आधार मन है या आत्मा?
समाधान -- इंद्रियावरण रूप मतिज्ञानाबरण कर्म के क्षयोपशम से जो इंद्रियजनित मतिज्ञान होता है उसका आधार आत्मा है। असंज्ञी जीवों में इंद्रियजनित मतिज्ञान होता है अत: इस क्षायोपशमिक इंद्रियजनित
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