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ध्यक्तित्व और कृतित्व ]
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गदचक्कवट्ठीणं पि असायसायरंतोपवेसप्पसंगादो। किंच तिव्वक्खओवसमगदजीवाणं मरणं पि होज्ज, णवजोयप्पभंतरट्रियविसेण जिब्भाए संबंघेण घादियाण णवजोयणभंतरट्रिदअग्गिणा दज्झमाणाणं च जीवणाणुववत्तीदो।" धवल पु० १३ पृ० २२६ ।
अर्थ- एकेन्द्रियों में स्पर्शन, इन्द्रिय अप्राप्त निधि को ग्रहण करती हुई उपलब्ध होती है और यह बात उस ओर प्रारोहको छोड़ने से जानी जाती है। घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय नौ योजन है। यदि इन इन्द्रियों के उत्कृष्ट क्षयोपशम को प्राप्त हुआ जीव नो योजन के भीतर स्थित द्रव्यों में से निकलकर आये हुए तथा जिह्वा, घ्राण और स्पर्शनइन्द्रिय से लगे हुए पुद्गलों के रस, गंध और स्पर्श को जानता है तो उसके चारों ओर से नौयोजन के भीतर स्थित विष्टा के भक्षण करने का और उसकी गंध के सूघने से उत्पन्न हुए दु.ख का प्रसंग प्राप्त होगा। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर इन्द्रियों के तीव्र क्षयोपशम को प्राप्त हए चक्रवर्तियों के भी असातारूपी सागर के भीतर प्रवेश करने का प्रसंग आता है। दूसरे, तीव्र क्षयोपशम को प्राप्त हए जीवों का मरण भी हो जायगा, क्योंकि, नौ योजन के भीतर स्थित विष का जिह्वा के साथ सम्बन्ध होने से घात को प्राप्त हए और नौ योजन के भीतर स्थित अग्नि से जलते हए जीवों का जीना नहीं बन सकता है। ( परन्तु ऐसा होता नहीं। )
-जे. ग. 5-1-70/VII/ का. ना. कोठारी चार इन्द्रियों से मात्र अर्थाबग्रह संभव है शंका-क्या चार शेष इन्द्रियों से 'मात्र' अर्थावग्रह भी होता है ? 'मात्र' से यहाँ मेरा तात्पर्य है ऐसा अर्थावग्रह जो व्यंजनावग्रह पूर्वक नहीं हुआ हो ।
समाधान- चार इन्द्रियों से मात्र अर्थावग्रह भी होता है, क्योंकि ये अप्राप्यकारी भी हैं । धवल पु० १३ पृ० २२५ पर व्यंजनावग्रह का कथन है अतः उससे मात्र अर्थावग्रह का निषेध नहीं होता। ( देखिये धवल पुस्तक १३ पृ० २२० अन्तिम शंका-समाधान, धवल पु०९ पृ० १५६-१५७ ) ।
-पत्राचार 7-4-79/ ज. ला. जैन, भीण्डर
चार इन्द्रियां प्राप्यकारी तथा अप्राप्यकारी हैं शंका-राजवातिक अध्याय १ सूत्र १९ वार्तिक १ और २ से यह विदित होता है कि भाचार्य श्री अकलंकदेव चक्षु व मन के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानना ही इष्ट समझते हैं, किन्तु सर्वार्थमितिकार श्री पज्यपाव तथा श्री वीरसेन आचार्य ने तो चार इन्द्रियों को प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी दोनों प्रकार माना है। क्या इसप्रकार के दो भिन्न-भिन्न मत हैं ?
समाधान-श्री अकलंकदेव ने उक्त वार्तिक २ में चक्षु व मन को तो अप्राप्यकारी ही माना है, किन्तु शेष चार इन्द्रियों को प्राप्यकारी व अप्राप्यकारी दोनों प्रकार का माना है--
"चक्षुर्मनसी वर्जयित्वा शेषाणामिन्द्रियाणां व्यञ्जनावग्रहः, सर्वेषामिन्द्रियाणामर्थावग्रहः" इति चक्षु और मन के अतिरिक्त शेष इन्द्रियों से व्यंजनावग्रह होता है अर्थात् वे प्राप्यकारी हैं। सभी इन्द्रियों से अवग्रह होता है अर्थात सर्व इन्द्रियाँ अप्राप्यकारी हैं।
यशहिरियाणा इन्द्रियास पवियाह हा शोर
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