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व्यक्तित्व और कृतित्व }
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एक देव के देवियों की संख्या शंका-तत्त्वार्थराजवातिक अध्याय ४ में लिखा है 'देवों के देबी ३२ नहीं होती यानी ५.६ तक भी होती हैं। गोम्मटसार में ३२ लिखी हैं सो कैसे ?
समाधान-देवों में सबसे अधिक संख्या ज्योतिष देवों की है, उनके ३२ देवियां होती हैं अत: गोम्मटसार में उनकी मुख्यता से कथन है किन्तु अन्य सभी देवों की ३२ देवियाँ नहीं होती ५-६ तक भी होती हैं इस अपेक्षा से राजवातिक में कथन है। अत: इन रोनों कथनों में परस्पर कोई विरोध नहीं है।
-जं. सं. 30-10-58/V/ ब्र. चं. ला. ऐशान स्वर्ग तक के देवों में मनुष्यवत् कामसेवन है, तदपि उनके शरीर शुकशोणित से रहित हैं
शंका-दूसरे स्वर्ग तक के देव मनुष्यों की तरह काम सेवन करते हैं, अतः उनका जन्म भी मनुष्यों की तरह गर्भज होना चाहिये, उपपाद जन्म क्यों कहा गया है ?
समाधान-दूसरे स्वर्ग तक के देव मनुष्यों की तरह काम सेवन करते हैं। "एते भवनवास्यावय ऐशानान्ताः संक्लिष्टकर्मत्वान्मनुष्यवत्स्त्रीविषयसुखमनुभवन्तीत्यर्थः । सर्वार्थ सिद्धिः । ४७ ।
अर्थ- भवनवासी से लेकर ऐशान स्वर्ग तक के देव संक्लिष्टकर्म वाले होने के कारण मनुष्यों के समान स्त्रीविषयकसुख का अनुभव करते हैं।
देवों के वैक्रियिकशरीर में शुक्र और शोणित नहीं होता है अतः उनका गर्भ-जन्म नहीं हो सकता है। "स्त्रिया उदरे शुक्रशोणितयोर्गरणं मिश्रणं गर्भः।" सर्वार्थसिद्धि २।३१ । अर्थ-स्त्री के उदर में शुक्र और शोणित के परस्पर गरण अर्थात् मिश्रण को गर्भ कहते हैं ।
__ –णे. ग. 5-3-70/IX/ जि. प्र. सौधर्म ऐशान तक के देव मनुष्यवत् काम सेवन करते हैं शंका-भवनत्रिक तथा सौधर्म व ईशान स्वर्ग में प्रवीचार किस प्रकार होता है ?
समाधान - भवनत्रिक तथा सौधर्म-ईशान स्वर्गों में काय से प्रवीचार होता है । कहा भी है-"सोहम्मीसारणेसुदेवा सम्वे वि काय पडियारा।" ति० ५० ८/३३६ ।
"भवनवासिनो ध्यन्तरा ज्योतिष्काः सौधर्मशानस्वर्गयोश्च देवाः संक्लिष्टकर्मत्वात् मनुष्यादिवत संवेशसखमनुभवन्ति इत्यर्थः ।" तत्वावृत्ति ४/७ ।
"काय प्रबीचाराः संक्लिष्टकर्मत्वात् मनुष्यवत् स्त्रीविषयसुखमनुभवन्तीत्यर्थः।" रा० वा० ४७ ।
इन मार्ष प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि भवनवासी-व्यन्तर-ज्योतिष-सौधर्म-ईशानस्वर्ग तक के देव मनुष्यों के सदृश काम सेवन के द्वारा स्त्रीविषयक-सुख का अनुभव करते हैं।
---.ग.8-8-74/VI/रो. ला. मित्तल
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