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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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मनुष्य, तिर्यंच के रक्त में प्रात्म प्रदेश हैं; कीटाणुओं में नहीं शंका-शरीर में खून आदि में जो कीटाणु हैं उनके द्वारा रोके गये स्थान में आत्मप्रदेश हैं या नहीं ? तथा खून में भी आत्मप्रदेश हैं या नहीं ?
समाधान- खून के कीटाणुओं के शरीर में मनुष्य के आत्मप्रदेश नहीं होते हैं, क्योंकि उन कीटाणुओं का शरीर प्रत्येक शरीर है। प्रत्येक शरीर एक ही आत्मा के उपभोग का कारण होता है। कहा भी है
"शरीरमेकात्मोपभोगकारणं यतो भवति तत्प्रत्येकशरीरनाम ।" स० सि० ८।११। खून में आत्म प्रदेश होते हैं, क्योंकि खून के भ्रमण करने पर आत्मप्रदेशों का भी भ्रमण होता है ।
-. ग. 25-3-76/VII/र. ला. जैन, मेरठ
मनुष्यगति मार्गणा का काल शंका-धवल पु० ५ पृ० ५१-५५ पर मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी के प्रकरण में मनुष्य से क्या मतलब है ? इसमें कौन-कौन शामिल हैं ? तथा 'मनुष्यों का ४८ पूर्व कोटि, मनुष्य पर्याप्त का २४ पूर्व कोटि तथा मनुष्यणी का ८ पूर्व कोटि' से क्या अभिप्राय है ।
समाधान-'मनुष्य' से प्रयोजन है ऐसा जीव जिसके मनुष्यगति का उदय हो। इसमें पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों नाम कर्म के उदय वाले जीव लिये गये हैं। 'मनुष्य पर्याप्त' में केवल पर्याप्त नाम कर्मोदय वाला जीव लिया गया है अपर्याप्त कर्मोदय वाला नहीं। मनुष्य व मनुष्यपर्याप्त में तीनों वेद वाले जीव हैं। मनुष्यणी में मनुष्यगति व पर्याप्त नामकर्मोदय वाला केवल स्त्रीवेदी जीव लिया गया है।
आठकोटि पूर्व पुरुषवेदी पर्याप्त मनुष्य, आठ पूर्वकोटि नपुंसकवेदी पर्याप्त मनुष्य और आठ पूर्वकोटि स्त्रीवेदी पर्याप्त मनुष्य इस प्रकार २४ पूर्वकोटि होकर अन्तर्मुहूर्त के लिये अपर्याप्त मनुष्य (लब्ध्य पर्याप्तक मनुष्य) हुआ। पुनः पूर्ववत् २४ पूर्वकोटि तक मनुष्य में भ्रमण किया। इस प्रकार यह ४८ पूर्वकोटि उत्कृष्ट काल कर्मभूमिया मनुष्यों में भ्रमण करने का, एक जीव की अपेक्षा है । मनुष्य अपर्याप्त से पूर्व के २४ पूर्वकोटि काल मनुष्य पर्याप्त की अपेक्षा उत्कृष्टकाल है। इन २४ पूर्वकोटि में से स्त्रीवेदी को ८ पूर्वकोटि काल मनुष्यणी की अपेक्षा है। यह सब कर्मभूमिया की अपेक्षा उत्कृष्ट काल है ।
-जं. ग. 25-1-62/VII/ध ला. सेठी, खुरई मनुष्य-अपर्याप्तों में स्पर्शन
शंका-महाबंध पु० २ पृ० १०९ पर मनुष्यअपर्याप्त जीवों में सात कर्मों के जघन्यस्थिति के बंधक जीवों का स्पर्शन लोक का असंख्यातवां भाग कहने में सैद्धान्तिक हेतु क्या है ? सर्वलोक क्यों नहीं ?
समाधान-जब असंज्ञी पंचेन्द्रियतियंच मरकर मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्पन्न होता है उस मनुष्य अपर्याप्तक के प्रथम व दूसरे समय में सात कर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध होता है ( महाबन्ध पु० २ पृ० ४२, २९४ व २८८)। जघन्य स्थितिबन्धक मनुष्य अपर्याप्तकों के उस समय मारणान्तिक समुद्घात नहीं हो सकता। असंज्ञीपंचेन्द्रिय
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