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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ २०१ अपर्याप्तक मनुष्यों के भाव मन नहीं होता। शंका- लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यों के मनःपर्याप्ति नहीं होती। इसका तात्पर्य यही है कि द्रव्य मन नहीं है पर भाव मन है ? समाधान-अपर्याप्त अवस्था में भाव मन भी नहीं होता, ऐसा कथन श्री १०८ वीरसेन स्वामी ने धवल पुस्तक १ पृ० २५९-२६० पर किया है। "तत्र भावेन्द्रियणामिव भावमनसः उत्पत्तिकाल एव सत्वादपर्याप्तकालेऽपि भावमनसः सत्वमिन्द्रियाणामिव किमिति नोक्तमिति चेन्न, बाह्यन्द्रियरग्राह्यद्रव्यस्य मनसोऽपर्याप्त्यवस्थायामस्तित्वेऽङ्गीक्रियमारणे द्रव्यमनसो विद्यमाननिरूपणस्यासत्त्वप्रसङ्गात् । पर्याप्तिनिरूपणात्तदस्तित्वं सिद्धयेदिति चेन्न, बाह्यार्थस्मरणशक्तिनिष्पत्तः पर्याप्तिव्यपदेशतो द्रव्यमनसोभावेऽपि पर्याप्ति-निरूपणोपपत्तेः । न बाह्यार्थस्मरणशक्तः प्रागस्तित्वं योग्यस्य द्रव्यस्योत्पत्तेः प्राकसत्वविरोधात । ततो द्रव्यमनसोऽस्तित्वस्य ज्ञापकं भवति तस्यापर्याप्स्यवस्थायामस्तिवानिरूपणमिति सिद्धम् ।" अर्थ इस प्रकार है प्रश्न-जीव के नवीन भव को धारण करने के समय ही भावेन्द्रियों की तरह भाव मन का भी सत्व पाया जाता है, इसलिये जिस प्रकार अपर्याप्त काल में भावेन्द्रियों का सद्भाव कहा जाता है उसी प्रकार वहाँ पर भावमन का सद्भाव क्यों नहीं कहा? उत्तर-नहीं, क्योंकि बाह्य इन्द्रियों के द्वारा नहीं ग्रहण करने योग्य वस्तुभूत मन का अपर्याप्तिरूप अवस्था में अस्तित्व स्वीकार कर लेने पर, जिसका निरूपण विद्यमान है ऐसे द्रव्यमन के असत्व का प्रसंग आ जायगा। प्रश्न-पर्याप्ति के निरूपण से ही द्रव्यमन का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि बाह्यार्थ की स्मरण शक्ति की पूर्णता में ही "पर्याप्ति" इस प्रकार का व्यवहार मान लेने से द्रव्यमन के अभाव में भी मनः पर्याप्ति का निरूपण बन जाता है। बाह्य पदार्थों की स्मरण शक्ति के पहिले द्रव्यमन का सद्भाव बन जायगा, ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि द्रव्यमन के योग्य द्रव्य की उत्पत्ति के पहले उसका सत्त्व मान लेने में विरोध आता है। अतः अपर्याप्त रूप अवस्था में भावमन के अस्तित्व का निरूपण नहीं करना द्रव्यमन के अस्तित्व का ज्ञापक है ऐसा समझना चाहिये। इस उपर्युक्त आर्ष वाक्यों से यह स्पष्ट है कि लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यों के भाव मन नहीं होता। -जें. ग. 13-12-65/VIII/ट. ला. णेन, मेरठ लब्ध्यपर्याप्तक जीवों की प्रायु ( क्षुद्रभव ) शंका-जयधवल पुस्तक १ पृ० ३३० से लेकर आगे तक दिये हुए अद्धा परिमाण के अनुसार क्षुद्रभव ग्रहण का परिमाण जघन्य काल श्वासोच्छ्वास से कहीं अधिक है। फिर निगोदिया जीवों का जन्म मरण एक श्वास ' में १८ बार कैसे सम्भव है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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