SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : यदि यह शंका की जावे कि ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय होने पर तो द्रव्य कर्म की अकर्म अवस्था प्रगट होगी, केवलज्ञान तो जीव की पर्याय है, वह ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय से कैसे प्रकट हो सकता है? ऐसी शंका करना भी ठीक नहीं है क्योंकि कार्योत्पत्ति में जिसप्रकार सम्पूर्ण साधक सामग्री की मावश्यकता होती है उसीप्रकार सम्पूर्ण बाधक कारणों के अभाव की भी आवश्यकता होती है। ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म यद्यपि अचेतन हैं तथापि उनमें ऐसी अपूर्व शक्ति है कि वे जीव के केवलज्ञान स्वभाव को नष्ट कर देते हैं, अर्थात् व्यक्त नहीं होने देते । कहा भी है का वि अउवा दीसदि पुग्गल-दध्वस्स एरिसी सत्ती। केवल-णाण-सहावो विणासिदो जाइ जीवस्स ॥२११॥ स्वा० का० अ० अर्थ-पुद्गल द्रव्य की कोई ऐसी अपूर्व शक्ति है जिससे जीव का जो केवलज्ञान स्वभाव है वह भी नष्ट हो जाता है। अत: जिस समय तक बाधक कारणों अर्थात् ज्ञानावरणादि घातिया कर्मों का क्षय नहीं होगा उस समय तक केवल प्रगट नहीं हो सकता, इसलिये सर्वज्ञ के उपदेशानुसार श्री भगवदुमास्वामी ने मोक्षशास्त्र अध्याय १० प्रथम सूत्र में कहा है कि ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों के क्षय होने से केवलज्ञान प्रगट होता है। -जं. ग. 6-13-5-65/XIV/म. मा. (१) मुनि अवस्था में भग्न शरीर केवलज्ञान होने पर पूर्ण हो जाता है (२) प्रात्मा की पवित्रता से शरीर भी पवित्र हो जाता है शंका-जिन मनियों को शेर ने भक्षण कर लिया अथवा सिर पर अग्नि जला दी गई इत्यादि उपसर्गपूर्वक केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गये उनके आत्म प्रदेश सिद्धालय में किस आकार रूप होते हैं ? उनका पूर्व शरीर तो उपसर्ग के द्वारा भग्न हो गया था। सिद्धालय में क्या उनका आकार इस भग्न शरीर से किंचित् ऊन रहता है ? समाधान-केवलज्ञान के प्राप्त होते ही इन उपसर्ग केवलियों का शरीर पूर्ववत् साङ्गोपाङ्ग बन जाता है। अरहत अवस्था में शरीर कटा-फटा या अङ्गहीन नहीं रहता। अरहंत अवस्था महान् अवस्था है साक्षात भगवान है, अतः उनका शरीर अङ्गहीन या विडरूप हो यह संभव नहीं है। वह शरीर तो परमौदारिक बन जाता है उसमें सप्त कुधातु नहीं रहतीं। आत्मा की पवित्रता से शरीर भी पवित्र हो जाता है। बारहवें गूणस्थान में सर्व निगोदिया जीव शरीर से निकल जाते हैं। प्रात्मा की विशुद्धता का प्रभाव पौद्गलिक शरीर पर पड़ता है और वह अशुचि शरीर भी महान् पवित्र हो जाता है । मोक्ष हो जाने पर आत्मा तो सिद्धालय में जाकर स्थित हो जाती है, क्योंकि आगे धर्मास्तिकाय का अभाव है। ऊर्ध्वगमन अनन्त शक्ति होते हुए भी धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण लोकाकाश के अन्त में ठहर जाते हैं। मोक्ष कल्याणक में देव उनके शरीर की पूजा करते हैं। इसप्रकार मात्मा की पवित्रता से शरीर भी पवित्र हो जाता है। अर्थात् एक वस्तु का प्रभाव दूसरी वस्तु पर पड़ता है। -जं. ग. 7-10-65/IX/म मा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy