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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
केवली के अनन्तवीर्य होने पर अघातिया कर्म का तत्क्षण नाश नहीं होता
शंका-केवली के अनन्तवीर्य प्रकट हो जाने पर उसी समय वह वीर्य अघातिया कर्मों का नाश करने में शक्य क्यों नहीं है ?
समाधान-आयु कर्म की स्थिति पूर्ण होने से पूर्व केवली के आयु कर्म का क्षय नहीं हो सकता है, क्योंकि आयु कर्म की उदीरणा प्रमत्त संयत छठवें गुणस्थान के बाद नहीं होती है।
"सकमसादं च तहिं मणुवाउगमवणिदं किच्चा। अवणिदतिप्पयडीणं पमत्तविरदे उदीरणा होदि ॥" गो० क० २८० ।
साता वेदनीय, असाता वेदनीय, मनुष्य-आयु इन तीन प्रकृतियों की उदीरणा प्रमत्तविरत नामा छठे गुणस्थान तक ही होती है, उससे आगे नहीं होती है। आयु कर्म का क्षय होने पर ही शेष तीन अधातिया कर्मों का क्षय होता है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने नियमसार में कहा भी है
"आउस्स खयेण पुणो णिण्णासो होइ सेसपयडीणं ।" गा० १७६ ।
अनन्त वीर्य उत्पन्न हो जाने पर भी जब तक मनुष्यायु कर्म की स्थिति शेष है उस समय तक अघातिया कर्मों का क्षय नहीं हो सकता है।
–णे. ग. 30-11-72/VII/र. ला. गैन, मेरठ
उपसर्ग केवली का स्वरूप
शंका-केवलज्ञान के पश्चात् उपसर्ग नहीं होता तब उपसर्ग केवली आगम में क्यों कहे ?
समाधान- केवलज्ञान हो जाने पर उपसर्ग नहीं होता और पूर्ववर्ती उपसर्ग भी शांत हो जाता है। तेरहवें गुणस्थान में अर्थात् अरहंत अवस्था में किसी प्रकार का कोई उपसर्ग नहीं रहता। जिनको उपसर्गपूर्वक
केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है वे उपसर्ग केवली कहलाते हैं । अन्तकृत् केवली भी सोपसर्ग होते हैं। इन अन्तकृत केव.. लियों का कथन अन्तःकृद्दशांग में है। यह अन्तःकृद्दशांग द्वादशांग का आठवां अङ्ग है।
अन्तःकृद्दशांग इस अङ्ग के २३२८००० पद हैं। इसमें प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थकाल में जिन दश दश मनीश्वरों ने चार प्रकार का घोर उपसर्ग सहन करके केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्ध पद प्राप्त किया उन सबका सविस्तार वर्णन है।
अन्तिम तीर्थंकर श्री १००८ महावीर स्वामी के तीर्थकाल में (१) नमि (२) मतङ्ग (३) सोमिल (४) रामपुत्र (५) सुदर्शन (६) यमलोक (७) वलिक (८) विषकम्बिल (९) पालम्बष्ट (१०) पुत्र इन दस मुनीश्वरों ने तीव्र उपसर्ग सहन कर केवलज्ञान प्राप्त किया।
-जे. ग. 7-10-65/IX/म. मा.
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