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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
"भावमनसः समुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नो मनोयोगः।"अर्थात् 'भावमन की उत्पत्ति के लिये जो प्रयत्न होता है वह मनोयोग है।' ऐसा लक्षण किया है वह लक्षण छद्मस्थों की अपेक्षा किया गया है। सयोगी केवली जिनकी अपेक्षा मनोयोग का लक्षण निम्न प्रकार है
"अतीन्द्रियज्ञानत्वान्न केवलिनो मन इति चेन्न, द्रव्यमनसः सत्त्वात् । भवतु द्रव्यमनसः सत्त्वं न तत्कार्यमिति चेद भवतु तत्कार्यस्य क्षायोपशमिक-ज्ञानस्याभावः अपितु तदुत्पादने प्रयत्नोऽस्त्येव तस्य प्रतिबन्धकत्वाभावात्। तेनात्मनो योगः मनोयोगः।" धवल पु० १ पृ० २८४।
यदि कहा जाय केवली के, अतीन्द्रिय ज्ञान होने के कारण, मन नहीं पाया जाता है। ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि केवली के द्रव्यमन का सद्भाव पाया जाता है। यद्यपि केवली के द्रव्य मन का क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं है, तथापि द्रव्य मन के उत्पन्न करने में प्रयत्न ( परिस्पन्द ) तो पाया ही जाता है क्योंकि द्रव्यमन की वर्गणाओं के लाने में होने वाले प्रयत्न ( परिस्पन्द ) का कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं पाया जाता है। इसलिये यह सिद्ध हया कि उस द्रव्यमन के निमित्त से जो आत्मा का परिस्पन्द रूप प्रयत्न होता है वह मनोयोग है।
-जं. ग. 5-12-74/VIII/ज. ला. ज. भीण्डर केवली के वास्तव में मनोयोग है
शंका-केवली के मनोयोग वास्तव में है या उपचार से ?
· समाधान-धवला में कहा है कि "उपचार से मन ( भावमन ) के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता।" (धवल पु० १/३६८ ) द्रव्यमन तो केवली के है, अतः मनोवर्गणाएं आती हैं । मनोवर्गणा के निमित्त से आत्मप्रदेश-परिष्पन्द होता है । अतः केवली के मनोयोग उपचार से नहीं, वास्तव में है ।
क्षायोपशमिक होने से केवली के योग नहीं हो सकता, ऐसी बात भी नहीं है क्योंकि वास्तव में तो योग औदयिक भाव है।'
-पत्र 27-4-74/I/ज. ला. जैन भीण्डर
सयोग केवली के ईर्यापथ प्रास्रव दो समय स्थिति का नहीं
शंका-कर्मकांड गाथा २७४ की टीका में केवली के साता का अनुभाग अनन्तगुणा माना है। कषाय के अभाव में तीव्र अनुभाग कैसे बँधा ? इसी टीका में साता का स्थिति बंध दो समय का होना मालूम पड़ता है। वो समय का स्थिति बंध कैसे सम्भव ?
१. योग पारिणामिक भाव अथवा आदयिक भाव है। [ ध० ५/२२५-२२६ ] योग क्षायोपामिक व ऑयिक
भाव है। [ध० ७/७५-७६ ] योग ऑयिक भाव है। [ ध०७/३१६ ] योग औदयिक भाव तथा क्षायोपश्रमिक भाव है। [ध० १०/४३६ ] योग वास्तव में आदयिक भाव है।
सिद्धान्तशिरोमणि पू0 0 रतनचन्द मुख्तार पत्र 27-4-741
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