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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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तेरहवें गुणस्थान में मोक्ष क्यों नहीं हो जाता?
शंका-सातवें गुणस्थान में सम्यग्दर्शन की पूर्णता तथा बारहवें गुणस्थान में चारित्र को पूर्णता और तेरहवें गुणस्थान में ज्ञान की पूर्णता हो जाती है फिर मुक्ति-लाभ क्यों नहीं होता है ? इससे रत्नत्रय के असमर्थपना आता है।
समाधान- यद्यपि तेरहवें गुणस्थान में रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र तीनों क्षायिक हो जाते हैं, क्योंकि उनके प्रतिपक्षी कर्म क्षय हो चूका है, तथापि आयूकर्म रूप बाधक कारण का सद्भाव होने से मुक्ति लाभ नहीं होता है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है--
आउस्स खयेण पुणो णिण्णासो होइ सेसपयडीणं । पच्छा पावइ सिग्धं लोयग्गं समयमेत्तेण ॥ १७६ ॥ नियमसार
आयु के क्षयसे शेष प्रकृतियों का सम्पूर्ण नाश होता है फिर वे शीघ्र समय मात्र में लोकान में पहुंचते हैं।
कार्य की सिद्धि में सम्पूर्ण साधक सामग्री के साथ साथ बाधक कारणों के अभाव की भी आवश्यकता है । केवलज्ञान के प्राप्त हो जाने पर भी जितनी मनुष्यायु की स्थिति शेष है उतने काल तक केवली-जिन को मुक्ति नहीं हो सकती है।
"प्रतिबंधकसभावानुमानमागमेऽभिमतं तावद सति न घटते।" मू० आ० पृ० २३
आगम में प्रतिबंधक कारण से कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है ऐसा खुलासा है, जैसे सहकारी कारण नहीं होने से कार्य की सिद्धि नहीं होती वैसे ही प्रतिबंधक का सदभाव होने से भी कार्य नहीं होता। सहकारी कारण होते हुए प्रतिबंधक कारणों का अभाव होगा तो कार्य उत्पन्न होता है अन्यथा नहीं होगा। अत: प्रतिबन्धक के सद्भाव में कार्य नहीं होता । मू० आ० पृ० २७ ।
-. ग. 1-1-70/VII-VIII/रो. ला. मि. तेरहवें गुणस्थान में प्रदेशबन्ध का अस्तित्व सकारण है शंका-तेरहवें गुणस्थान में प्रदेश बंध क्यों माना गया है ? वहाँ पर चार घातिया कर्मों का बंध नहीं है, फिर वहाँ पर सूक्ष्म पुद्गल परमाणु आत्मा से किस प्रकार बंध को प्राप्त हो सकते हैं ?
समाधान-तेरहवें सयोग केवली गुणस्थान में योग है । अतः वहाँ पर योग से साता वेदनीय कर्म प्रकृति का प्रदेश बन्ध होने में कोई विरोध नहीं है। कहा भी है
"जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होति ।" अर्थ-प्रकृति और प्रदेश बंध ये दोनों ही योग के निमित्त से होते हैं। "जोगणिमित्तेणेव जं वजाइ तमीरियावहकम्म ति भणिदं होदि।" धवल पु. १३ पृ० ४७ । योग मात्र के कारण जो कर्म बंधता है, वह ईर्यापथ कर्म है।
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