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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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उपदेश है, वह उपदेश द्रव्य और भाव के निमित्त-नैमित्तिकभाव को विस्तारता हुआ आत्मा के कर्तापने को जतलाता है। यदि ऐसा न माना जावे तो द्रव्य अप्रतिक्रमण और द्रव्य अप्रत्याख्यान इन दोनों के कर्तापन के निमित्तपने का उपदेश है वह व्यर्थ ही हो जायेगा । जबतक निमित्तभूत पर द्रव्य का प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान न करे तबतक नैमित्तिकभूत रागादिभावों का प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान नहीं होता।' अतः इन वाक्यों से भी यह ही सिद्ध होता है कि
निमित्तभूत वस्त्र आदि पर द्रव्य का प्रत्याख्यान (त्याग ) न करे उस समय तक तन्नैमित्तिक भूत रागादि का भी प्रत्याख्यान ( त्याग ) नहीं हो सकता। परद्रव्य सम्बन्धी रागादि त्याग बिना सातवाँ गुणस्थान होना असंभव है।
पहले गुणस्थान से सातवाँ गुणस्थान प्रायः द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि मुनि के होता है। चौथे तथा पांचवें गुणस्थान से सातवाँ होता है वह वस्त्र उतारने, केशलोंच करने तथा महाव्रत धारने के पश्चात् होता है। बिना महाव्रत ग्रहण किये सातवाँ गुणस्थान हो नहीं सकता। पंचममहाव्रत परिग्रहत्याग है। अत: परिग्रहत्याग ( वस्त्र आदि त्याग ) बिना सातवाँ गुणस्थान सम्भव नहीं है ।
-0. सं. 19-2-59/V/की. सा.
त्रिकरण; सातिशय मिथ्यादृष्टि गुणस्थान एवं सातिशय अप्रमत्तसंयत गुणस्थान
शंका-प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने के पूर्ववर्ती तीन करणों को कोई गुणस्थान संज्ञा क्यों नहीं दी, जब कि चारित्र अपेक्षा अपूर्व तथा अनिवृत्तिकरण भावों को पृथक् पृथक् गुणस्थान संज्ञा दी है। इसमें भी अधःकरण भावों को क्यों छोड़ दिया, उसे पृथक् गुणस्थान संज्ञा क्यों नहीं दी गई ?
समाधान–प्रथमोपशम सम्यक्त्व से पूर्व ( अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण ) ये तीन करण होते हैं। किन्तु ये तीनों करण मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होते हैं, क्योंकि उस समय भी मिथ्यात्व प्रकृति का उदय रहता है, यद्यपि वह पूर्व की अपेक्षा मंद है। अतः कहीं-कहीं पर इसको 'सातिशय मिथ्यात्व' गुणस्थान संज्ञा दी गई। मिथ्यात्व का उदय होने के कारण मिथ्यात्व गुणस्थान के अतिरिक्त अन्य संज्ञा देना असंभव है।
चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम या क्षपण के लिये भी ( अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण ) से तीन करण होते हैं। इन में से अधःकरण तो सातवें गुरणस्थान में होता है जिसकी 'सातिशय-अप्रमत्त-संयत गण स्थान' संज्ञा है। अपूर्वकरण में अपूर्व परिणाम होते हैं, अत: उसकी 'अपूर्वकरण शुद्धि संयत गुणस्थान' संज्ञा है। अनि वृत्तिकरण में परिणामों की भेदरहित वृत्ति होती है, अतः उसको ‘अनिवृत्ति बादर सांपरायिक प्रविष्ट शुद्धि संयम गुणस्थान' सज्ञा दी गई। इन तीनों करणों में चारित्र में उत्तरोत्तर विशुद्धि होती जाती है। पाँचवें से बारहवें तक चारित्र मोह की अपेक्षा गुणस्थान संज्ञा है, अतः इनकी पृथक्-पृथक् संज्ञा दी गई है। अथवा अपूर्व करण व अनिवृत्तिकरणों से भिन्न-भिन्न कर्मों की बंध-व्युच्छित्ति होती है, अतः इनकी पृथक्-पृथक् गुणस्थान संज्ञा दी गई है। किन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्व से पूर्व होने वाले तीन करणों से कर्मप्रकृति की बंध-व्युच्छित्ति नहीं होती, अतः उनकी पृथक् गुणस्थान संज्ञा नहीं दी गई। इसी कारण चारित्र विषयक अधःकरण की भी पृथक् गुणस्थान संज्ञा नहीं दी गई।
-जै. ग. 29-3-62/VII/ज. कु.
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