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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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समाधान - आचार्यप्रवर भूतबली ने भावस्त्री के छठा आदि गुणस्थान लिखा है। श्री वीरसेन स्वामी ने धवला टीका में द्रव्यस्त्री के छठा आदि गुणस्थान का निषेध किया है । स्त्री नग्न नहीं हो सकती और वस्त्र असंयम का अविनाभावी है अतः स्त्री के भावसंयम भी नहीं हो सकता । ष० खं० पु० १ सूत्र ९३ की टीका । इससे स्पष्ट है कि जिस समय तक बाह्यनिमित्त अनुकूल न हो उस समय तक जीव के परिणाम भी उज्ज्वल नहीं हो सकते । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी इस विषय को समयसार बन्ध अधिकार गाथा २८३ - २८५ में तथा श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी उक्त गाथाओं की टीका में स्पष्ट किया है ।
बाह्य द्रव्य और जीव के भावों का अनादि काल से निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । सिद्ध भगवान भी इस निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध से अछूते नहीं रहे, ऊर्ध्वगमनस्वभाव होते हुए भी धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण लोकाकाश से आगे नहीं जा सके । तत्त्वार्थसूत्र, नियमसार और पंचास्तिकाय की टीका इसमें प्रमाण है ।
स्त्रियाँ प्रायः हर नगर में पूजन करती हैं, स्त्रीपूजन में तो किसी को विवाद है नहीं ।
- जै. सं. 25-10-56 / VI / मो. ला. उरसेवा
मुनिराज केवल छठे गुणस्थान में ही नहीं बने रह सकते
शंका- भावलिंगी मुनि छठे व सातवें गुणस्थानों में रहने वाला होता है या सिर्फ छठे गुणस्थान वाला सम्यक्त्व सहित भी मुनि रह सकता है ?
समाधान - छठा गुणस्थान अपवाद मार्ग है और सातवाँ गुणस्थान उत्सर्ग मार्ग है । अपवाद अर्थात् छठे गुणस्थान और उत्सर्ग अर्थात् सातवें गुणस्थान की परस्पर मैत्री है । मात्र अपवाद मार्ग में स्थित मुनि असंयमी हो जाता है । प्रवचनसार में कहा भी है
"बालवृद्धश्रान्तग्लानेन शरीरस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधन भूत संयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथास्यत्तथा बालवृद्धश्रान्तग्लानस्य स्वस्य योग्यं मृवाचरणमाचरता संयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात् तथा संयतस्य स्वस्थयोग्यमति कर्कशमप्याचरणमाचरणीयमित्युत्सर्गसापेक्षोपवादः । अतः सर्वथोत्सर्गापवादमै न्या सौस्थित्यमाचरणस्य विधेयम् ॥ २३० ॥
अर्थ -- बाल-वृद्ध - श्रान्त-ग्लान को शरीर का जो कि शुद्धात्मतत्त्व के साधन भूत संयम का साधन होने से मूलभूत है, उसका छेद जैसे न हो उस प्रकार से बाल-वृद्ध - श्रांत ग्लान ऐसे अपने योग्य मृदु आचरण ( छठे गुणस्थान का आचरण ) आचरते हुए, संयम का जो कि शुद्धात्मतत्त्व का साधन होने से मूलभूत है उसका भी छेद न हो ऐसा अपने योग्य अतिकर्कश आचरण ( सातवें गुणस्थान का आचरण ) आचरे । इस प्रकार उत्सर्ग ( सातवां गुणस्थान ) सापेक्ष अपवाद ( छठा गुणस्थान ) है । इस प्रकार हमेशा उत्सर्ग और अपवाद की मंत्री द्वारा आचररण की सुस्थिरता करनी चाहिये
जो मुनि उत्सर्ग मार्ग की अपेक्षा से रहित मात्र अपवाद मार्ग का आचरण करता है वह असंयतजनों के समान है । प्रवचनसार गाथा २३१ में कहा भी है
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