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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
इस प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टि के चतुर्थ गुणस्थान में किसी भी आर्ष वाक्य से स्वरूपाचरण सिद्ध नहीं होता, अपितु निषेध ही होता है। इसलिये स्व० ५० अजितकुमारजी ने ठीक ही लिखा है ।
-जे.ग.2-1-69/VII/म. मा.
पंचमगुणस्थान की पात्रता शंका-गोम्मटसार कर्मकांड गाथा ३२९ में लिखा है कि देवायु का बंध वगैर अणुव्रत महावत नहीं पले। सो कैसे?
समाधान-नारकी जीवों के तो नित्य अशुभ लेश्या रहती है, इसलिये वे अणुव्रत या महाव्रत धारण नहीं कर सकते । देवों और भोगभूमिया मनुष्यों का आहार नियत है, इसलिये वे भी अणुव्रत या महाव्रत नहीं पालन कर सकते । यद्यपि वे क्षायिक सम्यग्दृष्टि और अत्यधिक शक्ति वाले होते हैं तथापि वे संयम या संयमासंयम नहीं धारण कर सकते, क्योंकि उनके आहार करने की पर्याय नियत होने से वे आहार संबंधी इच्छा नहीं कर सकते।
अतः मात्र कर्मभूमिया मनुष्य संयम धारण कर सकते हैं। किन्तु जिन मनुष्यों ने नारक, तियंच तथा मनुष्य आयु का बंध कर लिया है वे संयम या संयमासंयम धारण नहीं कर सकते, क्योंकि नरकायु आदि का बंध हो जाने पर उनके अणुव्रत या महाव्रत को ग्रहण करने को बुद्धि उत्पन्न नहीं होती है। कहा भी है
"देवगतिव्यतिरिक्तगतित्रयसम्बद्घायुषोपलक्षितानामणुव्रतोपादानबुद्धधनुत्पत्तः।" धवल पु० १ पृ० ३२६ ।
अर्थ-देवगति को छोड़कर शेष तीन गति संबन्धी आयुबंध से युक्त जीवों के अणुव्रत ग्रहण करने की बुद्धि ही उत्पन्न नहीं होती है।
-जं. ग. 24-7-67/VII/ज. प्र. म. कु.
पंचमंगुणस्थान में प्रास्रवबन्ध की न्यूनता व निर्जरा का नरन्तर्य शंका-मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय ७ पेज १९७ पंचम षष्ठम गुणस्थान में गुणधेणी निर्जरा होती है आहार विहारादि क्रिया होते परद्रव्य चितवनतें भी आसव बंध थोरा हो है। क्या यह सब पंचम गुणस्थान में संभव है ?
. समाधान यहाँ पर कथन चतुर्थ गुणस्थान की अपेक्षा से किया गया है। मोक्षमार्ग-प्रकाशक के शब्द इस प्रकार हैं-"बहुरि चौथा गुणस्थान विर्ष कोई अपने स्वरूप का चितवन कर है ताके भी आसव बंध अधिक है। पंचम षष्ठम गुणस्थान विर्ष आहार विहारादि क्रिया होते पर द्रव्य चितवनत भी आसव बंध थोरा हो है वा गुणश्रेणी निर्जरा हुवा करे है।"
चतुर्थ गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने से तत् सम्बन्धी दस प्रकृतियों का पासव व बंध होता है किन्तु पंचम गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय का अभाव हो जाने से उन दस प्रकृतियों का आसव व बंध नहीं होता। तथा अन्य प्रकृतियों के स्थिति अनुभाग में भी अन्तर पड़ जाता है।
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