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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
- सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के प्राप्त हो जाने पर चारित्र भजनीय है अर्थात् चारित्र हो अथवा न भी हो। जैसे चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान तो है किन्तु चारित्र नहीं है, छठे आदि गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन के साथ सम्यक्चारित्र भी होता है।
यदि यह कहा जाये कि चतुर्थ गुणस्थान में मोहनीय की अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय का अभाव है अतः उसके अभाव में जो चारित्र उत्पन्न होता है, वह ही स्वरूपाचरण चारित्र है । सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है. क्योंकि अनन्तानबन्धी कषायोदय का अभाव तीसरे गुरणस्थान में भी होने से तीसरे गुणस्थान में भी स्वरूपाचरण चारित्र का प्रसंग आजायगा जो किसी को भी इष्ट नहीं है। दूसरे जो अनन्त संसार का कारण है वह अनन्तानुबन्धी है ऐसा अनन्तानुबन्धी शब्द का अर्थ होता है। कहा भी है
"ण चाणताणुबंधिचउक्कवावारो चारित णिष्फलो, अपच्चक्खाणाविअणंतोदय-पवाहकारणस्स णिप्फलत्तविरोहा।" धवल पु० ६ पृ० ४३ ।
अर्थ-चारित्र में अनन्तानुबन्धीचतुष्क का व्यापार निष्फल भी नहीं है, क्योंकि चारित्र की घातक अप्रत्याख्यानादि के उदय के अनन्त प्रवाह में कारणभूत अनन्तानुबन्धी कषाय के निष्फलत्व का विरोध है।
वास्तव में चारित्र की घातक अप्रत्याख्यानावरण आदि कषाय हैं, क्योंकि प्रत्याख्यान का अर्थ चारित्र या संयम है, 'प्रत्याख्यानं संयमः' ऐसा आर्ष वाक्य है। अप्रत्याख्यान का अर्थ ईषत चारित्र है, क्योंकि "न: देखत्वात नग्नः ।" जो ईषत चारित्र को भी न होने देवे वह अप्रत्याख्यानावरण कषाय है। ऐसा अप्रत्याख्यानावरण का अर्थ होता है। प्रथम चार गुणस्थानों में अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहता है अतः इन चार गणस्थानों में संयम का अभाव अर्थात असंयम होता है।
"कथमेवं मिथ्यात्वादित्रयं संसारकारणं साधयतः सिद्धान्तविरोधो न भवेदिति चेन्न, चारित्रमोहोदयेऽन्तरंगहेतौ सत्युत्पद्यमानयोरसंयममिथ्यासंयमयोरेकत्वेन विवक्षितत्वाच्चतुष्टयकारणत्वासिद्धः संसरणस्य तत एवावि. रतिशब्देनासंयमसामान्यवाचिना बंधहेतोरसयमस्योपदेशघटनात् ।" श्लोकवातिक १ पृ० ५५६ ।
यहाँ किसी का तर्क है कि मिथ्याचारित्र और असंयत-सम्यग्दृष्टि का असंयम यदि भिन्न-भिन्न है तो संसार के कारण ( मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र और असंयम ) चार हुए। फिर मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र इन तीन को संसार का कारण कहने वाले सिद्धान्त से क्यों न विरोध होगा? क्योंकि इनसे भिन्न असंयम को ससार का कारण-पना हो जायगा। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहना तो ठीक नहीं है, क्योंकि मिथ्याचारित्र और असंयम इन दोनों भावों का अतरंग कारण चारित्र मोहनीय कर्मोदय है। चारित्र मोहनीय कर्मोदय के उदय होने से उत्पन्न होने वाले अचारित्र और मिथ्याचारित्र की एकरूपपने से विवक्षा पैदा होचकी है। अतः संसार के कारणों को चारपना सिद्ध नहीं है। इसीलिए मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय व योग को ( अध्याय ८ सूत्र १ में ) जो बन्ध का हेतु कहा गया है वहाँ पर भी आचार्य महाराज ने 'अविरति' से, मिथ्याचारित्र और चतुर्थ गुणस्थान के असंयम इन दोनों को ग्रहण किया है।
यदि प्रथम गुणस्थान के असंयम को और चतुर्थ गुणस्थान के असंयम को अप्रत्याख्यानावरण चारित्र मोहनीय कर्मोदय का कारण न होता तो द्वादशांग में 'असंजदा एइंदियपहाडि जाव असंजवसम्माटि ति अर्थात एकेन्द्रिय से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि तक असंयत जीव होते हैं। इस सूत्र की रचना न होती। प्रथम और
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