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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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श्री १०८ अकलंक देव ने भी कहा है- "हतंज्ञानं क्रियाहीनं ।" अर्थात् चारित्र रहित ज्ञान निकम्मा है ।
णाणं चरितहोणं लिंगग्गहणं च दंसण विहणं । संजमहोणो य तवो जइ चरइ णिरत्ययं सव्वं ॥ ५ ॥
इस शीलपाड की गाथा में १०८ कुन्दकुन्द आचार्य ने भी बतलाया कि चारित्र रहित का ( असंयत सम्यग्दष्टि का ) ज्ञान निरर्थक हैं। निम्न गाथा में यह भी कह दिया है कि जो इन्द्रिय विषयों से विरक्त नहीं है, उसका सम्यग्ज्ञान विषयों के द्वारा नष्ट हो जाता है
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सीलस्स य णाणस्स य णत्थि विरोहो बुधेहि णिद्दिट्ठो ।
वरि य सीलेण विणा विसया णाणं विणासंति ॥ २ ॥ शीलपाहुड
विद्वानों ने शील ( विषय विराग ) और ज्ञान का परस्पर विरोध नहीं कहा है, किन्तु यह कहा है कि शील के बिना विषय ( पंचेन्द्रियों के विषय ) ज्ञान ( सम्यग्ज्ञान ) को नष्ट कर देते हैं ।
इस प्रकार चारित्र रहित अर्थात् चतुर्थगुणस्थानवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टि का ज्ञान तप निरर्थक है तथा पंचेन्द्रिय के विषयों से विरक्त न होने के कारण, विषयों द्वारा उसका ज्ञान नष्ट हो जाता है ।
तीर्थंकर भगवान भी संयम धारण करने से पूर्व अपने विषय में क्या विचार करते हैं, उसका वर्णन श्री १०८ गुणभद्र आचार्य ने निम्न श्लोकों द्वारा किया है ।
सुधीः कथं सुखांशेप्सु विषयामिषगृद्धिमान् । न पापं बडिशं पश्येन चेदनिमियायते ॥ मूढः प्राणी परां प्रौढिम प्राप्तोऽस्त्वहिता हितः । अहितेनाहितोऽहं च कथं बोधत्रयाहितः ॥ निरङकुशं न वंराग्यं यादृग्ज्ञानं च तादृशम् । कुतः स्यादात्मनः स्वास्थ्यम् स्वस्थस्य कुतः सुखम् ॥
भगवान ने विचार किया कि अल्प सुख की इच्छा रखने वाले बुद्धिमान मानव, इस विषय रूपी मांस में क्यों लम्पट हो रहे हैं । यदि यह प्रारणी मछली के समान आचरण न करे तो पापरूपी वंसी का साक्षात्कार न करना पड़े 'जो परम चातुर्य को प्राप्त नहीं है, ऐसा मूर्ख प्राणी भले ही अहितकारी कार्यों में लीन रहे, परन्तु मैं तो तीन ( मति श्रुत-अवधि ) ज्ञानों से सहित हूँ फिर भी अहितकारी कार्यों में कैसे लीन हो गया ?' जब तक यथेष्ट वैराग्य नहीं होता और यथेष्ट सम्यग्ज्ञान नहीं होता तब तक श्रात्मा की स्वस्वरूप में स्थिरता कैसे हो सकती ? और जिनके स्वरूप में स्थिरता नहीं उसके सुख कैसे हो सकता है ?
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यहाँ पर यह बतलाया गया कि जो इन्द्रिय-विषयों से विरक्त नहीं है, उसके स्वरूप में स्थिरता ( रमणता ) संभव नहीं और न वह सुखी हो सकता है। चतुर्थ गुणस्थान वाला अविरत सम्यग्दृष्टि पाँच इन्द्रियों के विषयों से विरत नहीं है, वह तो विषय रूपी अहितकारी कार्यों में लीन है अतः उसके यथेष्ट वैराग्य व ज्ञान संभव न होने से, उसके स्वस्वरूप में स्थिरता ( रमण ) तथा सुख नहीं हो सकता है ।
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