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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १२१
"स्वाभाविकानन्तज्ञानाद्यनन्तगुणधारभूतं निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम्, इन्द्रियसुखावि परद्रव्यम् हि हेयमित्यहत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते परं किन्तु भूमिरेखादिसदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवरगृहीततस्करववात्मनिन्दासहितः सन्निन्द्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेर्लक्षणम् ।" बृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा १३ टीका ।
अर्थ--"स्वाभाविक अनन्तज्ञान अनन्तगुणों का आधारभूत निजपरमात्म द्रव्य उपादेय है तथा इन्द्रिय सुख आदि परद्रव्य हेय है तथा सर्वज्ञ कथित निश्चय-व्यवहार नय में परस्पर साध्य-साधक भाव है" ऐसा मानता है, किन्तु भूमि-रेखा समान क्रोधादि दूसरी अप्रत्याख्यानावरण कषायोदय से, मारने के लिये कोतवाल से पकड़े हुए चोर की भाँति, आत्मनिंदादि सहित इन्द्रियसुख का अनुभव करता है, यह अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुरणस्थानवर्ती का लक्षण है।
श्री १०८ अमृतचन्द्र आचार्य ने कलश ११० में कहा है कि कर्म का उदय अवशपने से होता है और उस मोहनीय कर्मोदय से जो राग-द्वेष भाव होते हैं उनसे बन्ध होता है। वह वाक्य इस प्रकार है
"कित्वत्रपि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बंधाय ।"
अर्थ-किन्तु यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि सम्यग्दृष्टि के अवशपने से जो कर्म उदय में आता है वह तो बन्ध का कारण है । ( वह कर्मबन्ध अनन्तानन्त संसार का कारण नहीं होता )।
का वि अडव्वा दीसहि पुग्गल दव्वस्स एरिसी सत्ती । केवलणाणसहावो विणासिदो जाइ जीवस्स ॥२११॥ स्वा० का
अर्थ-पुद्गल द्रव्य की कोई ऐसी अपूर्व शक्ति है जिससे जीव का जो केवलज्ञान स्वभाव है, वह भी विनष्ट हो जाता है।
जैसे एक मनुष्य को रोग हो गया और वह रोगजनित पीड़ा को सहन करने में असमर्थ है । अतः वह रोग को दूर करने के लिये इच्छापूर्वक औषधि का सेवन करता है किन्तु चाहता है कि इस औषधि से कब पिंड छुटे अर्थात् हेय बुद्धि से रोग को दूर करने की इच्छा से औषधि का सेवन करता है। उसी प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के कर्मोदयजनित रोग है जिसकी पीड़ा को वह सहन करने में असमर्थ है, अतः वह उस रोगजनित पीड़ा को दूर करने की इच्छा से बुद्धिपूर्वक विषय-भोग रूप औषधि का सेवन करता है किन्तु उसमें उसके हेय बुद्धि है अर्थात् निरन्तर इस प्रयत्न में रहता है कि किस प्रकार इन भोगों से छुटकारा पाऊँ ( त्याग करू ) जिसके विषयत्याग रूपी संयम धारण करने की चटापटी नहीं है तथा जो संयमियों का आदर नहीं करता, वह मिथ्यादृष्टि है।
-गं. ग. 22-11-65/VII/रा. दा. कैराना
असंयतसम्यक्त्वी को कथंचित् उपादेय है शंका-१० नवम्बर, १९६६ के लेख से यह सिद्ध होता है कि "असंयत सम्यग्दृष्टि के पुण्य और पाप दोनों हेय हैं।" क्या यह सर्वथा आगम-सम्मत है ?
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