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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
(१) असंयत सम्यक्त्वी के गुणश्रेणिनिर्जरा का समय
(२) असंयत सम्यक्त्वी को निर्जरा से अधिक बन्ध शंका-असंयतसम्यक्त्वी को गुणणिनिर्जरा कब-कब होती है ? एक पुस्तक में ऐसा लिखा है कि उसको निरन्तर संख्यातगुणी निर्जरा होती है ? क्या ऐसा सम्भव है ? क्या सम्यक्त्वी के ज्ञान व दर्शन कार्यकारी हैं ? क्या असंयतसम्यक्त्वी का तप कार्यकारी है ?
समाधान-मूलाचार में लिखा है कि असंयत सम्यग्दृष्टि का तप गुणकारी नहीं होता। यदि उस तप से अविपाक निर्जरा मान ली जाय तो वह गुणकारी हो जायगा। टीकाकार श्री वसुनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती लिखते हैं कि जितनी कर्म निर्जरा होती है उससे अधिकतर व दृढ़तर कर्म असंयम के कारण बँध जाते हैं। प्रवचनसार में कहा है कि सम्यग्दर्शन व ज्ञान संयम के बिना व्यर्थ है; यदि स्वाँखा [ सुनेत्री ] प्रकाश के होते हुए गड़े में गिरता है तो उसकी आँखें तथा प्रकाश व्यर्थ हैं।२।।
धवल, जयधवल, महाधवल आदि ग्रन्थों में से किसी में भी ऐसा नहीं लिखा है कि असंयमी के संख्यातगुणी निर्जरा होती है। यदि वह अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना, दर्शनमोह की क्षपणा या द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है तो तीन करण होने से (उस समय) असंख्यातगुणी गुरगश्रेणिनिर्जरा होती है, अन्य समय नहीं।
-पत 18-1-80/I/ज. ला. जैन भीण्डर चतुर्थ गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व शंका-चौथे गुणस्थानवर्ती मनुष्य के क्या क्षायिक सम्यक्त्व हो सकता है ? यदि हो सकता है तो किसी ऐसे व्यक्ति का नाम लिखने की कृपा करें।
समाधान-चौथे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक वेदक सम्यग्दृष्टि दर्शन मोह की क्षपणा कर सकता है। कहा भी है
"विसंजोइवाणंताणुबंधिचउक्को वेदयसम्माविट्ठी असंजदोसंजदासंजदो पमत्तापमत्ताण मण्णदरो संजदो वा सम्वविसुद्धण परिणामेण सणमोहक्खवणाए पयट्टदि त्ति घेत्तत्वं ।" जयधवल पु० १३ पृ० १२ ।
अनन्तानुबंधी चतुष्क की विसंयोजना करने बाला वेदक सम्यग्दृष्टि मनुष्य, असंयत या संयतासंयत तथा प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतों में से किसी भी गुणस्थान में, सर्वविशुद्ध परिणामों के द्वारा दर्शन मोह की क्षपणा करने में प्रवृत्त होता है।
राजा श्रणिक ने मिथ्यात्व अवस्था में नरकायु का बंध किया उसके पश्चात् सम्यक्त्व ग्रहण करके, श्री वीर भगवान के पादमूल में क्षायिक सम्यक्त्व ग्रहण किया। नरकायु का बंध हो जाने के कारण राजा श्रेणिक के चतुर्थ गुणस्यान के अतिरिक्त अन्य गुणस्थान संभव नहीं था । कहा भी है
चत्तारिवि खेत्ताई, आउगबंघेण होइ सम्मत्तं । अणुवदमहव्वदाई ण लहइ देवाउगं मोत ॥३३४॥ गो० क०
१ शीलपाहुड, गाथा ५ मूल २. भगवती आराधना, गाथा ११, १२॥
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