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श्राहारकद्विक का सत्त्वासत्त्व
शंका- दूसरे गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति, आहारकशरीर व आहारक अंगोपांग का सत्व नहीं है और तीसरे मिश्रगुणस्थान में आहारकशरीर व आहारक अंगोपांग का सत्त्व बतलाया है सो किस अपेक्षा से बताया है ? समाधान — तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध सम्यग्दष्टि के होता है और इस प्रकृति का बन्ध प्रारम्भ होने के पश्चात् वह जीव मिध्यात्व को प्राप्त नहीं होता अर्थात् सम्यग्दृष्टि ही बना रहता है। यदि तीर्थंकरप्रकृति से पूर्व उस जीव ने दूसरे या तीसरे नरक की आयु का बंध कर लिया है तो ऐसा जीव दूसरे या तीसरे नरक में उत्पन्न होने से एक अन्तर्मुहूर्त पूर्व और उत्पन्न होने के एक अन्तर्मुहूर्त पश्चात् तक मिथ्यादृष्टि होता है । केवल ऐसे जीव के मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थंकरप्रकृति का सत्त्व पाया जाता है। नरक में उत्पन्न होने वाले जीव के दूसरे या तीसरे गुणस्थान में मरण नहीं है क्योंकि नरक में दूसरा या तीसरा गुणस्थान अपर्याप्त अवस्था में नहीं पाया जाता अतः तीर्थंकरप्रकृति की सत्त्व वाला जीव दूसरे या तीसरे गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता है । यही कारण है कि दूसरे व तीसरे गुणस्थान में तीर्थंकरप्रकृति के सत्त्व का निषेध किया है ।
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
प्रथमोपशम सम्यक्त्व से गिरकर ही दूसरे गुणस्थान को जाता है । प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि के आहारकद्विक का बंध नहीं होता है । जिस जीव के आहारकद्विक का सत्त्व है वह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं होता क्योंकि आहारकद्विक की उद्व ेलना के बिना सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की स्थिति प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने के योग्य नहीं होती । तेरह उद्वेलन प्रकृतियों में सर्वप्रथम आहारकद्विक की उद्व ेलना होती है । अतः दूसरे गुणस्थान में आहारकद्विकका सत्त्व नहीं होता । अथवा आहारकद्विक की सत्त्ववाला जीव सम्यक्त्व से गिरकर दूसरे गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता ऐसा स्वभाव है और स्वभाव तर्क का विषय नहीं है । आहारकद्विक की उद्वेलना के बिना भी आहारकद्विक की सत्त्ववाला मिथ्यादृष्टि जीव मिश्रगुणस्थान को जा सकता है अतः तीसरे गुणस्थान में आहारक सत्त्व कहा है ।
-जै. सं. 24-1-57 / VI / ब. बा. हजारीबाग
पर्याप्त अवस्थाभावी गुणस्थान
शंका- धवल पु० १ पृ० २०६ पर लिखा है "केवल सम्यग्मिथ्यात्व का तो सदा हो सभी गतियों के अपर्याप्तकाल के साथ विरोध है" इसमें केवल शब्द ठीक क्या ? क्या मूल में भी है ? फिर पृ० २०९ दिया हैये दो गुणस्थान ( तीसरा और पाँचवाँ ) पर्याप्त काल में ही पाये जाते हैं, इससे कैसा मेल बैठता है ?
समाधान - धवल पु० १ पृ० २०६ पर अनुवाद पंक्ति ११ में केवल शब्द नहीं होना चाहिये । धवल पु० १ पृ० ३२९ सूत्र ९० में कहा है कि सम्यग्मिथ्यात्व, सयमासंयम और संयत नियम से पर्याप्त होते हैं । इतनी विशेषता है सम्यग्मिथ्यात्व में मरण नहीं होता, किन्तु संयमासंयम व संयत अवस्था में मरण संभव है ।
- जै. ग. 19-10-67/ VIII / ट. ला. जैन
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असंयत सम्यक्त्व का जघन्य काल
शंका- चतुर्थ गुणस्थान का मिनिट सैकण्ड में जघन्य काल कितना है ? यदि क्षुद्रभव या देशोनतत्प्रमाण है तो क्षुद्रभव से क्या अभिप्राय है ? क्षुद्रभव का जघन्य काल कैसे प्राप्त होता है ? तथा यह क्षुद्रभव उत्कृष्ट है या जघन्य या अजघन्योत्कृष्ट ?
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