________________
११० ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तारः
पुष्णिदरं विगिविगले तत्थुप्पण्णो हु सासणी देहे । पज्जति गवि पावदि इदि णरतिरिया उगं णत्थि ॥ ११३ ॥ ण हि सासणो अपुष्णे साहारण सुहमगे य तेउदुगे ।। ११५ ॥ गो. क
एकेन्द्रिय तथा विकल चतुष्क ( दो इंद्री, ते इंद्री, चौ इंद्री तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय ) में उत्पन्न हुआ जीव सासादन गुणस्थान में शरीर पर्याप्ति को पूर्ण नहीं कर सकता है, क्योंकि सासादन काल अल्प है और निर्वृति अपर्याप्त अवस्था का काल बहुत है । लब्धि अपर्याप्त अवस्था में, साधारण ( निगोदिया ) जीवों में, सूक्ष्म जीवों में, तेजोकाय और वायुकाय जीवों में सासादन गुणस्थान नहीं होता है ।
इसी बात को तत्त्वार्थवृत्ति में भी कहा गया है
सासादनः सम्यग्दृष्टिहि वायु कायिकेषु तेजः कायिकेषु नरकेषु सर्व सूक्ष्म कायिकेषु च चतुर्थस्थानकेषु नोत्पद्यते इति नियमः तथा चोक्तम्-
वज्जिअ ठाण चउक्कं तेऊ वाऊ य णरेयसुहुमं च ।
अण्णत्थं सव्वठाणे उववज्जदि सासणो जीवो ।। पृ० २६ ।
अर्थात् तेजकायिक, वायुकायिक, नरक और सर्व सूक्ष्मकायिक को छोड़कर बाकी के स्थानों में सासादन जीव उत्पन्न होता है । धवल पु० ५ पृ० ३५ पर भी कहा है
"सासणं पडिवण्णविदिय समए जदि मरदि, तो नियमेण देवगढीए उववज्जदि । एवं जाव आवलियाए असंखेज्जदिभागो देवगदिपाओग्गो कालो होदि । तदो उवरि मणुसगदि पाओग्गो आवलियाए असंखेज्ज भाग मेत्तो कालो होंदि । एवं सष्णिपंचिदियतिरिक्ख, असष्णिपचदियतिरिक्ख । चउरिदिय, तेइंदिय, वेइंदिय, एइंदिय पाओग्गाहोदि । एसो नियमो सव्वत्थ सासणगुणं पडिवज्जमाणाणं ।"
Jain Education International
अर्थ - सासादन गुणस्थान को प्राप्त होने के दूसरे समय में यदि वह जीव मरता है तो नियम से देवगति में उत्पन्न होता है । इसी प्रकार आावली के असंख्यातवें भाग प्रमाणकाल देवगति में उत्पन्न होने के योग्य होता है । उसके ऊपर मनुष्यगति के योग्य काल ग्रावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इसी प्रकार से आगे श्रागे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय एकेन्द्रियों में उत्पन्न होने योग्य होता है । यह नियम सर्वत्र सासादन गुणस्थान को प्राप्त होने वालों का जानना चाहिये ।
श्री पुष्पदंत आचार्य के मतानुसार सासादन सम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता है । श्री धवल पु० १ पृ० २६१ पर कहा भी है
"एइंदिए सासणगुणद्वाणं पि सुणिज्जदि तं कथं घडदे ? ण एदम्हि सुत्रो तस्स णिसिद्धतादो ।"
अर्थ – एकेन्द्रिय जीवों में सासादन गुणस्थान भी सुनने में आता है, इसलिये उनके केवल एक मिध्यादृष्टि गुणस्थान का कथन करने से वह कैसे बन सकेगा ? ऐसी शंका उचित नहीं है, क्योंकि इस खंडागम सूत्र एकेन्द्रियादिकों के सासादन गुणस्थान का निषेध किया है ।
में
"असण्णीणं भण्णमरणे अस्थिएयं गुणद्वाणं ।" धवल पु० २ पृ० ८३४
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org