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[पं० रतनचन्द जन मुख्तार।
अर्थ-यहाँ आवली का असंख्यातवाँ भाग अन्तर्मुहूर्त है, इसप्रकार ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि ऐसा आचार्य का परम्परागत उपदेश है।
-जें. ग. 15-5-69/X/र. ला. जैन, मेरठ
मिथ्यादष्टि के बन्ध के अकारणभूत भाव
शंका-आस्रव और बन्ध के हेतुभूत भावों के अतिरिक्त आत्मा के अन्य कोई ऐसे भी भाव होते हैं, जिनसे आसव-बन्ध नहीं होता है ? यदि हाँ तो प्रथम गुणस्थानवर्ती जीव के कुछ ऐसे भावों के नाम उल्लेख करने का कष्ट करें?
समाधान-जीव के औपशमिक, क्षायिक, पारिणामिक व गति, जाति आदि प्रौदयिक ऐसे भाव हैं जो आस्रव व बन्ध के कारण नहीं हैं। कहा भी है कि योग आस्रव का कारण है। त. सू. ६१ व २ ।
ओदइया बंधयरा उवसम-खयमिस्सया य मोक्खयरा। भावो द पारिणामिओ कारणोभयवज्जियो होदि ॥ धवल पु० ७ पृ०९
औदयिक भाव बन्ध के कारण हैं, औपशामिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव मोक्ष के कारण हैं तथा पारिणामिक भाव बन्ध तथा मोक्ष दोनों के कारण से रहित हैं।
ओवइया बंधयरा त्ति वुत्ते ण सम्वेसिमोदइयाणं भावाणं गहणं, गदि-जादिआदीणं पि ओवइय भावाणं बंध-कारणप्पसंगा।
प्रौदायिक भाव बंध के कारण हैं ऐसा कहने पर सभी प्रौदयिक भावों का ग्रहण नहीं समझना चाहिये. क्योंकि वैसा मानने पर गति, जाति आदि नाम कर्म सम्बन्धी औदयिक भावों के भी बंध के कारण होने का प्रसंग आजायगा।
ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानों में ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मोदय से अज्ञान व अदर्शन औदयिक भाव हैं किन्तु मोहनीय कर्मोदय के अभाव में बंध नहीं होता है। चौदहवें गुरणस्थान में मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति आदि औदयिक भाव हैं किन्तु मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग के अभाव में आस्रव व बंध नहीं होता।
कायवाङ मनः कर्म योगः । स आसवः । मिथ्यादर्शनाविरति प्रमादकषाययोगा बंधहेतवः ।
शरीर वचन मन की जो क्रिया वह योग है, वही आस्रव है, अथवा आस्रव का कारण है। मिथ्यादर्शन. अविरति, प्रमाद, कषाय योग ये बंध के कारण हैं। इनके अतिरिक्त जो अन्य भाव हैं वे आस्रव व बंध के कारण नहीं हैं। एकेन्द्रिय जीव के भी तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, प्रज्ञान, अदर्शन आदि औदयिक भाव तथा जीवत्व पारिणामिक बन्ध व आस्रव का कारण नहीं है ।
-जें. ग. 24-12-70/VII/र. ला. जैन, मेरठ
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