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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
श्री १०८ समन्तभद्र आचार्य किस स्वर्ग में गये और आगामी तीर्थकर होंगे, ऐसा कथन किसी आर्ष ग्रन्थ में मेरे देखने में नहीं पाया है।'
-0. ग. 10-1-66/XI/ज. प्र. म. कु. सीता का जीव प्रतीन्द्र सम्बोधनार्थ नरक में नहीं गया
शंका-परमपूज्य प्रभाचन्द्राचार्य विरचित 'तत्वार्थवृत्तिपदम्' पृष्ठ ३८८ [ पं० फूलचन्द्रजी सि० शास्त्री का सम्पादन-स० सि० के पृष्ठ ] पर लिखा है कि 'अष्टावपि कुतो नेति नाशङ्कनीयम् शुक्ललेश्यानामधोविहाराभावात्' "अर्थात्- शुक्ललेश्या वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवों के विहार की अपेक्षा ८ राजू नहीं बनते, क्योंकि शुक्ललेश्या वाले देवों का नीचे [ चित्रा पृथिवी के नीचे ] विहार नहीं होता" यही बात धवल पु० ४ स्पर्शनानुगम में एवं ध० ७ खुद्दाबन्ध में है। फिर शुक्ल लेश्या वाला, सोलहवें स्वर्ग में स्थित सीता का जीव देव नीचे रावण को सम्बोधन करने कैसे गया था ? यदि सिद्धान्तानुसार नहीं गया तो प्रथमानुयोग में ऐसा कथन क्यों किया गया है ? यदि गया तो क्या सिद्धान्त भी औपचारिक होते हैं ? यदि हाँ, तो फिर वस्तुस्थिति का सम्प्रदर्शक कौन बचेगा?
समाधान-आपकी शंका ठीक है। करणानुयोग के अनुसार सीता का जीव लक्ष्मण व रावण को सम्बोधन देने हेतु नरक में नहीं गया। प्रथमानुयोग में जो कथन है वह सम्बोधनात्मक है, अथवा मनुष्यों को उनके कर्तव्य बताने के लिए है। वह सिद्धान्तरूप नहीं होता। लक्ष्मण व रावण चतुर्थ नरक में गये हैं। (त्रिलोकसार व तिलोयपण्णत्ती) बारहवें स्वर्ग से ऊपर के देव चित्रा पृथ्वी से नीचे नहीं जाते (धवल पु० ४, स्पर्शनानुगम) तथा चतुर्थे नरक में कोई भी देव नहीं जाता।
"रावण के जीव ने सीता के जीव के प्रति बहुत अन्याय किया था। फिर भी सीता का जीव रावण के जीव का उपकार करने हेतु नरक में गया।" इतना कहकर यह उपदेश मात्र दिया गया है कि कोई कितना भी अपकार करे, किन्तु हमें उसका उपकार ही करना चाहिए।
वस्तुतः सिद्धान्त के अनुसार सीता का जीव ( देव ) नरक में नहीं गया।
-पत्र 1 5-6-79 एवं 16-6-79/II/ज. ला. जैन, भीण्डर
१ राजा लिकथे ने कन्नड़ ग्रन्थ में समन्तभद्र स्वामी को तपस्या द्वारा धारणऋद्धिधारी बताते हुए उन्हें आगामी तीर्थंकर कहा है। यथा—आ भावि तीर्थकरन अप्प समन्तभद्रस्वामी गलुपुनर्दीसँगोण्ड तपस्सामर्थ्यदि चतुरगुलचारणत्यम पडे दु रत्नकरण्डकादि जिनागमपुराणम पेल्लि स्याद्वाद वादिगल आडी समाधिय ओडेदरू। ( समीचीन धर्मशास्त्र, प्रस्ता0 पृ० ५०) भावितीर्थंकरत्व के विषय में एक और उल्लेख है यथा
अ हरी णव पडिहरि चक्कि-चउक्कं च एय बलभदो, सेणिय समंतभद्दो तित्थयरा हंति णियमेण ।
अर्थ-आठ नारायण, नव प्रतिनारायण, चार चक्रवर्ती, एक बलभद्र, आणिक तथा समन्तभद्र. ये चौबीस महारुप आगे भी तीर्थकर होंगे। आप्तमीमांसा, प्रस्ता0 पृ०५, भाषाकार-पं0 मूलचंदजी शास्त्री (श्री महावीरजी)
-सम्पादक
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