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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
नारद चरमशरीरी नहीं होते
शंका-हरिवंशपुराण सर्ग ४२ में नारद को देशान्तर प्राप्त करने वाला तथा चरमशरोरी कहा है सो कैसे ?
समाधान-त्रिलोकसार और तिलोयपण्णत्ती में नारद नियम से नरक में जाता है ऐसा लिखा है। हरिवंशपुराण ( ज्ञानपीठ ) पृ०५०५ के फुटनोट से स्पष्ट है कि श्लोक १३ व २२ में 'अन्त्यदेहस्य' के स्थान पर 'अत्यदेहस्य' पाठ होना चाहिये । लेखक की असावधानी के कारण 'अत्यदेहस्य' के स्थान पर 'अन्त्यदेहस्य' लिखा गया। 'अत्यदेहस्य' का अर्थ है काम-बाधा रहित जिसका शरीर हो। नारद पूर्ण ब्रह्मचारी होते हैं, अतः 'अत्यदेहस्य' विशेषण उचित है। नरकायु बन्ध से पूर्व देशवत होने में आगम से कोई विरोध नहीं आता है।
कलहप्पिया कदाई धम्मरवा वासुदेवसमकाला। भन्वा णिरयदि ते हिंसादोसेण गच्छंति ॥८३५॥ त्रिलोकसार
अर्थ-नारद कलहप्रिय होते हैं, कदाचित् धर्म विर्ष भी रत हैं, नारायणादि के समकालीन होते हैं, भव्य हैं, हिंसादोष के कारण नरक गति को प्राप्त होय हैं।
तिलोयपण्णत्ती अधिकार ४ गाथा १४७० में भी 'अधोगया वासुदेवव्व' इन शब्दों के द्वारा यह कहा है कि वासुदेव के समान नारद भी अधोगति
-जें. ग 10-1-66/VIII/ज.प्र. म. कु.
पातुख समान नारदमा अधागात । नरक) को प्राप्त हए।
नारद के प्राहार, प्राचरण, गति आदि का वर्णन शंका-शास्त्रों में जो नारदों का वर्णन आता है वहाँ अब तक उनके आहार का वर्णन देखने में नहीं आता है सो क्या नारद-आहार करते हैं या नहीं? और किस प्रकार ? तथा शास्त्रों में नारद को देशव्रती बतलाया है साथ में नरकगामी भी, अतः नारद सम्यग्दृष्टि होते हैं या मिथ्याइष्टि ? तथा च नौन स्वर्गगामी बतलाया है सो किस आधार पर ?
समाधान यद्यपि शास्त्रों में नारद के आहार का कथन नहीं मिलता है तथापि वे अन्नादि का आहार अवश्य करते थे।
त्रिलोकसार गाथा ८३५ में और तिलोयपण्णत्ती अधिकार ४ गाथा १४७० में नारद को नरकगामी लिखा है । अर्थात्-वासुदेव के समकाल में नारद होते हैं जो भव्य होते हैं और कदाचित् धर्मरत होते हैं, किन्तु कलहप्रिय होते हैं। वे हिंसा-दोष के कारण नरक में जाते हैं।
हरिवंशपुराण सर्ग ४२ श्लोक २० में उन्हें देशसंयमी लिखा है।
नारदो बहु-विद्योऽसौ, नानाशास्त्रविशारदः। संयमासंयम लेभे, साधुः साधुनिषेवया ॥२०॥
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