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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : सरल परिणामी * श्री प्रेमचन्दजी जैन, अध्यक्ष "अहिंसा-मन्दिर", नई दिल्ली
विद्वद्वर्य स्व० श्री रतनचन्दजी मुख्तार का जन्म जुलाई १९०२ में हुआ। १९२० में मैट्रिक करने के पश्चात् १६२३ में मुख्तारी की परीक्षा उत्तीर्ण की और सहारनपुर की कचहरी में कार्य करने लगे। जिनेन्द्र पूजन, शास्त्र स्वाध्याय, शास्त्र प्रवचन, गुरु भक्ति व वात्सल्य आपके दैनिक जीवन के अभिन्न अंग थे। आप मृदुभाषी, सरल परिणामी व सन्तोष भाव वाले उच्चकोटि के सिद्धान्त ज्ञाता थे। आपकी सूझबूझ, अकाट्य लेखनी व समय-समय पर विद्वानों व श्रीमानों को दिये गये मार्गदर्शन, आगम पथ पर चलने और जिनवाणी द्वारा बताये गये अनेकान्त सिद्धान्त को यथावत् रखने में बहुत सहायक सिद्ध हुए। ग्रन्थ राज धवल व महाधवल की शुद्धि का कार्य तो आप द्वारा पूर्ण दक्षतापूर्वक किया गया, जिसके लिए त्यागियों व विद्वानों ने आपकी महती सराहना की।
बहत वर्षों तक आप जैनदर्शन, जैन गजट व जैन संदेश आदि पत्रों में 'शंका-समाधान' विभाग के सर्वेसर्वा रहे व सिद्धान्त सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर लिखते रहे। दि० जैन शास्त्री परिषद् के अध्यक्ष भी आप रहे। आपकी स्मरण-शक्ति उच्चकोटि की थी।
स्व० पूज्य श्री गणेशप्रसादजी वर्णी के तो आप अनन्य भक्त थे और अन्त समय तक आप उनके साथ रहे। हमारा आपसे लगभग ३५ वर्षों से घरेलू सम्बन्ध रहा। आप जब कभी देहली पधारते थे. तो हमें सेवा का अवसर मिल जाता था, आपके लघुभ्राता श्री नेमिचन्दजी जैन, वकील भी आपके ही पद चिह्नों पर चल रहे हैं। इन्हीं शब्दों में, मैं आपको अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
विनमृता की सजीव मूर्ति * श्री सौभाग्यमल जैन, भीण्डर-उदयपुर
अद्वितीय शास्त्रवेत्ता, आत्म श्रद्धानी पण्डित रतनचन्दजी मुख्तार गुणों की खान थे। मैं उनके परम शिष्य का शिष्य है। जब भी वे अपने शिष्य श्री जवाहरलाल शास्त्री को पत्र लिखते, मुझे भी जयजिनेन्द्र लिखकर आशीर्वाद देते थे। कारण कि मैं वर्ष १९७७-७८ में निरन्तर मृत्यु तुल्य गम्भीर अस्वस्थता से ग्रस्त रहा। यह बात मेरे अनुज श्री जवाहरलाल ने उन्हें एक पत्र में यों लिख दी थी कि "मैं अग्रज सौभाग्यमलजी की गम्भीर शारीरिक अस्वस्थता से अतीव आतङ्कित एवं अस्त-व्यस्त चल रहा हूँ।" केवल एक बार ऐसी जानकारी दे देने से उन्होंने यावत्स्वास्थ्य-लाभ लिखे ८० पत्रों में से प्रत्येक में मेरे स्वस्थ होने की कामना की थी। श्री जवाहरलाल शास्त्री को लिखे उनके कुछ पत्रों को मैंने पढ़ा तो ज्ञात हुआ कि वे अपने पौत्र तुल्य शिष्य श्री जवाहरलाल को शास्त्रीय शङ्काओं को लिखने की उसकी श्रेष्ठता के कारण गुरु भी लिख देते थे। यह तथ्य उनके अनेक पत्रों से ज्ञात होता है। वे कितने महान् शास्त्र पारगामी थे फिर भी उनमें विनम्रता की कितनी पराकाष्ठा थी !! उनकी विनम्रता हम सबके लिए ईर्ष्या योग्य है।
कभी-कभी मैं भी अपनी शङ्काएँ उन्हें लिख भेजता । उन शङ्काओं के उनसे प्राप्त समाधान निश्चय ही अदभूत पाण्डित्य एवं उनके शास्त्र पारगामित्व को सूचित करते हैं। मेरी जानकारी में आपके सभी शिष्य ऐसे हैं.
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