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________________ छंद मेघविजयने छन्दोंके विधानमें शास्त्रीय नियमका यथावत् पालन किया है। प्रथम सर्व उपजाति में निवद्ध है। सर्गके अन्तमें मालिनी तथा खग्धराका प्रयोग किया गया है। द्वितीय सर्गमें इन्द्रवज्राकी प्रधानता है। सर्गान्तके पथ शिखरिणी, मालिनी, उपेन्द्रवज्रा उपजाति तथा शार्दूलविक्रीडितमें हैं। तृतीय तथा चतुर्थ सर्गकी रचनायें वसन्ततिलकाका आश्रय लिया गया है। अन्तिम पथोंमें क्रमशः स्रग्धरा तथा शार्दूलविक्रीडित प्रयुक्त हुए हैं । पाँचवें तथा छठे सर्गका मुख्य छन्द क्रमशः हरिणी तथा अनुष्टुप् है । पाँचवें सर्ग - का अन्तिम पद्य खग्धरामें निबद्ध है। छठे सर्गके अन्तिम पद्योंकी रचना वसन्ततिलका तथा शालविक्रीडित हुई है। सातवें सर्गमें जो छह छन्द प्रयुक्त हुए हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-हरिणी, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, इन्द्रवज्रा, स्वागता तथा शिखरिणी । अन्तिम दो सर्गों के प्रणयनमें क्रमशः द्रुतविलम्बित तथा उपजातिको अपनाया गया है । इनके अन्तमें शार्दूलविक्रीडित, वंशस्थ तथा स्रग्धरा छन्द प्रयुक्त हुए हैं । कुल मिलाकर सप्तसन्धान में तेरह छन्दों का उपयोग किया गया है। इनमें उपजातिका प्राधान्य है । उपसंहार -- मेघविजयकी कविता, उनकी परिचारिकाकी भाँति गूढ़ समस्याएँ लेकर उपस्थित होती है (२७) । उन समस्याओंका समाधान करनेकी कविमें अपूर्व क्षमता है । इसके लिये कविने भाषाका जो निर्मम उत्पीडन किया है, वह उसके पाण्डित्यको व्यक्त अवश्य करता है, किन्तु कविताके नाम पर पाठकको वौद्धिक व्यायाम कराना, उसका भाषा तथा स्वयं कविताके प्रति अक्षम्य अपराध है। अपने काव्यकी समीक्षा की कविने पाठकसे जो आकांक्षा की है, उसके पूर्ति में उसकी दूरारूद शैली सबसे बड़ी बाधा है। पर यह स्मरणीय है कि सप्तसम्पानके प्रणेताका उद्देश्य चित्रकाव्य-रचना में अपनी क्षमताका प्रदर्शन करना है, सरस कविताके द्वारा पाठकका मनोरंजन करना नहीं । काव्यको इस मानदण्डसे आंकनेपर ज्ञात होगा कि वह अपने लक्ष्य में पूर्णतः सफल हुआ है । बाणके गद्यकी मीमांसा करते हुए बेबरने जो शब्द कहे थे, वे सप्तसन्धानपर भी अक्षरशः लागू होते हैं सचमुच सप्तसन्धान महाकाव्य एक बीहड़ वन है, जिसमें पाठकको अपने धैर्य, श्रम तथा विद्वत्ताकी कुल्हाड़ीसे झाड़-झंखाड़ोंको काटकर अपना रास्ता स्वयं बनाना पड़ता है । १. काव्येक्षणाद्वः कृपया पयोवद् भावाः स्वभावात्सराः स्युः । १११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only विविध : ३०७ www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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