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रूढ़ियोंका भी निर्वाह हआ है । रघुवंशकी भांति सप्तसन्धान नाना नायकोंके चरितपर आधारित है, जो धीरोदात्त गुणोंसे सम्पन्न महापुरुष हैं । इसका कथानक जैन साहित्य तथा समाजमें, आंशिक रूप से जैने तर समाजमें भी, चिरकाल से प्रचलित तथा ज्ञात है । अतः इसे 'इतिहास प्रसूत' (प्रख्यात) मानना न्यायोचित है । सप्तसन्धानमें यद्यपि महाकाव्योचित रसाताका अभाव है, तथापि इसमें शान्तरसकी प्रधानता मानी जा सकती है। शृंगार तथा वीर रसकी भी हल्की-सी रेखा दिखाई देतो है। चतुर्वर्गमेंसे इसका उद्देश्य मोक्षप्राप्ति है। काव्यके चरितनायक (तीर्थकर) कैवल्यज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् शिवत्वको प्राप्त होते हैं। मानवजीवनकी चरम परिणति सतत साधनासे जन्म-मरणके चक्रसे मुक्ति प्राप्त करना है, भारतीय संस्कृतिका यह आदर्श ही काव्यमें प्रतिध्वनित हआ है। - सप्तसन्धानकी रचना सर्गबद्ध काव्यके रूपमें हुई है । काव्यका शीर्षक रचना-प्रक्रिया पर आधारित है तथा इसके साँके नाम उनमें वर्णित विषयके अनुसार रखे गये हैं । छन्दोंके प्रयोगमें भी मेघविजयने शास्त्रीय विधानका पालन किया है। प्रत्येक सर्गमें एक छन्दकी प्रधानता है। सर्गान्तमें छन्द बदल दिया गया है। सातवें सर्गमें नाना छन्दोंका प्रयोग भी शास्त्रानु कूल है । इसके अतिरिक्त इसमें भाषागत प्रौढ़ता, विद्वत्ताप्रदर्शनकी अदम्य प्रवृत्ति, शैलीकी गम्भीरता, नगर, पर्वत, षड्ऋतु आदि वस्तु-व्यापारके महाकाव्यसुलभ विस्तृत तथा अलंकृत वर्णन भी दृष्टिगोचर होते हैं। अतः सप्तसन्धानको महाकाव्य माननेमें कोई हिचक नहीं हो सकती। स्वयं कविने भी शीर्षक तथा प्रत्येक सर्गकी पष्पिकामें इसे महाकाव्य संज्ञा प्रदान की है। कवि-परिचय तथा रचनाकाल
अन्य अधिकांश जैन कवियोंकी भाँति मेघविजयका गृहस्थजीवन तो ज्ञात नहीं, किन्तु देवानन्दाभ्युदय, शान्तिनाथचरित, युक्तिप्रबोधनाटक आदि अपनी कृतियों में उन्होंने अपने मुनिजीवनका पर्याप्त परिचय दिया है। मेघविजय मुगल सम्राट अकबरके कल्याणमित्र हीरविजयसूरिके शिष्यकुलमें थे । उनके दीक्षा-गुरु तो कृपाविजय थे, किन्तु उन्हें उपाध्याय पदपर विजयदेवसूरिके पट्रधर विजयप्रभसूरिने प्रतिष्ठित किया था। विजयप्रभसूरिके प्रति मेघविजयकी असीम श्रद्धा है। न केवल देवानन्द महाकाव्यके अन्तिम सर्गमें उनका प्रशस्तिगान किया गया है अपितु दो स्वतन्त्र काव्यों-दिग्विजय महाकाव्य तथा मेघदूतसमस्यालेख-के द्वारा कविने गुरुके प्रति कृतज्ञता प्रकट की है । ये दोनों काव्य विजयप्रभसूरिके सारस्वत स्मारक हैं।
__ मेघविजय अपने समयके प्रतिभाशाली कवि, प्रत्युत्पन्न दार्शनिक, प्रयोगशुद्ध वैयाकरण, समयज्ञ ज्योतिषी तथा आध्यात्मिक आत्मज्ञानी थे। उन्होंने इन सभी विषयोंपर अपनी लेखनी चलायी तथा सभीको अपनी प्रतिभा तथा विद्वत्ताके स्पर्शसे आलोकित कर दिया। प्रस्तुत महाकाव्यके अतिरिक्त उनके दो अन्य महाकाव्य-देवानन्दाभ्युदय तथा दिग्विजय महाकाव्य सुविज्ञात हैं। मेघविजय समस्यापूर्तिके पारंगत आचार्य हैं । देवानन्द, मेघदूतसमस्यालेख तथा शान्तिनाथ चरितमें क्रमशः माघकाव्य, मेघदूत तथा नैषधचरितकी समस्यापूर्ति करके उन्होंने अद्भुत रचनाकौशलका परिचय दिया है। मेघविजयने किरातकाव्यकी भी समस्यापूति की थी, किन्तु वह अब उपलब्ध नहीं है। लघुत्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित, भविष्यदत्तकथा तथा पंचाख्यान उनकी अन्य ज्ञात काव्यकृतियाँ हैं। विजयदेव माहात्म्य विवरण श्रीवल्लभके सुविख्यात विजयदेव माहात्म्यकी टीका है। युक्तिप्रबोधनाटक तथा धर्ममंजूषा उनके न्यायग्रन्थ हैं। चन्द्रप्रभा, हैमशब्दचन्द्रिका,
३. गच्छाधीश्वरहीरविजयाम्नाये निकाये धियां प्रेष्यः श्रीविजयप्रभाख्यसूगरोः श्रीतपाख्ये गणे। शिष्यः प्राज्ञमणेः कृपादिविजयस्याशास्यमानामग्रणीश्चक्रे वाचकनाममेघविजयः शस्यां समस्यामिमाम ।।
शान्तिनाथचरित, प्रतिसर्गान्ते २९८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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