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तथा संकुचित विचारधारा ही आसक्तिको जन्म देती है। तथा फिर यह आसक्ति भेदभावनाकी वृद्धिमें सहायक होती है। अतएव अपने प्रत्येक कर्तव्यको, प्रत्येक कार्यको (चाहे वह कार्य जनसमाजमें कितना ही छोटा या तुच्छ क्यों न समझा जाता हो) जब मनुष्य स्वार्थबुद्धि या आसक्तिका त्याग करके पूरे कौशल तथा मनोयोग पूर्वक करने लगता है, और उस कार्यको करने में अपने वैयक्तिक स्वार्थ साधनकी अपेक्षा समाजकल्याणको, भूतहितको, ही अधिक महत्त्व देने लगता है, तभी उसके अन्दर विशाल और व्यापक दृष्टिका उत्तरोत्तर विकास सम्भव है । और जब मनुष्यकी दृष्टि इतनी विशाल और व्यापक हो जाती है कि उसका प्रत्येक कार्य, उसके शरीरकी प्रत्येक चेष्टा, श्वासोच्छ्वाससे लेकर भोजन करने तथा सोने तककी उसकी प्रत्येक क्रिया सहज भावसे ही विश्व सेवाके रूपमें, यज्ञके रूपमें, भगवद के रूपमें, होने लगती है, तब उसका अहंभाव समाप्ताहो जाता है; क्योंकि उस अवस्थामें उसके सभी कर्म उसी प्रकार सहजसाध्य हो जाते हैं जिस प्रकार उसकी श्वसन क्रिया । इस स्थितिमें मनुष्यका संसारमें अपना कुछ नहीं रहता और सभी कुछ उसका हो जाता है। तब वह स्वयं इतना विशाल तथा व्यापक बन जाता है कि यद्यपि उसके पैर द्वैतकी भूमिपर टिके रहते हैं, परन्तु उसका सिर अद्वतके उच्च तथा निर्मल आकाशको छूता रहता है। और तब उसके जीवन में हूँत-अद्वैतका सच्चा समन्वय हो जाता है। तब शाश्वत तथा विस्तृत दृष्टिसे द्वत भूमि पर किया हुआ पृथक-पृथक् देवका यजन भी उसी अद्वैत तत्त्व या परब्रह्म देवको स्वतः समर्पित होता रहता है।
१. यच्चिद्धि शश्वता तना देवं देवं यजामहे ।
त्वे इद् हूयते हवि : ॥ ऋग्वेद १-२६-६
२९६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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