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निरपेक्ष तथा निरतिशय है, जिससे अधिक तथा महान् कोई अन्य सत्ता नहीं है, वही भूमा है, बृहत्तम है, ब्रह्म है शेष सब कुछ अल्प है । भूमाको लक्ष बनाकर जब मनुष्य उसकी ओर निरन्तर गतिसे बढ़ता जाता है, तब उसका जीवन भी उच्च से उच्चतर, महत्से महत्तर बनता चला जाता है । सचमुच लक्ष की ऊंचाईसे ही मनुष्य की ऊंचाई तथा महत्ता मापी जा सकती है।
परन्तु उस भूमा की प्राप्तिके लिए, उस महान् निरपेक्ष शाश्वत सुखकी अनुभूतिके लिए तो मनुष्यको अपना सारा जीवन ही साधनामय बनाना होगा । अपने जीवनको एक विशेष साँचे में ढालना होगा, दूसरे शब्दोंमें उसे अपने जीवनका पुननिर्माण करना होगा। परन्तु जिस प्रकार ईंट, लकड़ी, लोहा, सीमेंट इत्यादि उपकरणोंको एक ही स्थान पर अव्यवस्थित रूपमें ही इकट्ठा कर देनेसे ही किसी भवनका निर्माण नहीं हो जाता, उसी प्रकार अव्यवस्थित, निरुद्देश्य, लक्ष्यहीन, कर्मों तथा विचारोंके ढेरसे ही जीवनका निर्माण नहीं हो सकेगा। उत्तम भवनके निर्माणके लिए वास्तुकलाका अध्ययन आवश्यक है, जीवन निर्माणके लिए भी जीवनकला अथवा जीवनयोग सीखने की आवश्यकता है, और आवश्यकता है उस जीवनकलाको जीवनमें उतारने की।
___ तो हमारे सम्पूर्ण ज्ञानका, तथा सारे कर्मोका लक्ष्य है भूमा की प्राप्ति और विश्वके मूलमें जो अमृत, अद्वत, चेतन तत्त्व है वही वस्तुतः भूमा है । इस भूमा द्वैतका सर्वथा अभाव है। एकमात्र भूमा ही अमृत है, शेष जो कुछ भी अल्प है अर्थात् भूमासे निम्न है, वह भी मर्त्य है, नाशवान् है।' भूमा ही एकमात्र परम ज्ञेय है, उसका ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है । वेद की सब ऋचाएं उसी अक्षर परम व्योममें प्रतिष्ठित हैं, सब उसी एकमात्र अक्षरका प्रतिपादन कर रही हैं। जो उस अक्षर भूमा को, अद्वैत तत्त्वको नहीं जान सका वह वेद पढ़कर भी क्या करेगा, विश्वके सारे ज्ञानसे भी वह कौनसे लाभ की प्राप्ति कर सकेगा ? अद्वैत की प्राप्तिके लिए द्वैतका सहारा अनिवार्य
परन्तु इस अद्वैत तत्त्वको, अमृत भूमाको, द्वत पर आश्रित मर्त्य देहधारी कैसे जाने ? मनुष्य और उसका सम्पूर्ण जीवन ही द्वतके अन्तरगत है । विश्वका सारा व्यवहार ही ढत पर आश्रित है । द्वैतसे बाहर जाकर ही अद्वैत प्राप्त किया जा सकता है। परन्तु क्या मनुष्यके लिए द्वतका अतिक्रमण करना सम्भव है, शक्य है ? यह एक ऐसा प्रश्न है जो प्रत्येक सच्चे जिज्ञासुके मनमें उठा करता है। और जिसको सुलझानेका तत्त्वदर्शी ऋषियोंने, संसारके सभी मनीषियोंने अपने-अपने ढंगसे प्रयत्न किया है।
द्वत की चाहे पारमार्थिक सत्ता न हो, व्यावहारिक सत्ता तो है ही, इसे कौन इनकार कर सकता है ? मनुष्य, उसका जीवन, और संसार तथा उसका सारा व्यवहार सभी व्यावहारिक रूपसे सत्य हैं, उसकी उपेक्षा करना उसका उचित उपयोग न करना किसी भी प्रकारसे वांछनीय नहीं है । मानव जीवन द्वत वक्षपर लगा हुआ एक सुन्दर फल है। जब तक वह इस वृक्षसे अपनी पूरी पुष्टि, पूरा विकास, नहीं प्राप्त कर लेता तब तक वह तसे, मृत्युके बन्धनसे छुटकारा नहीं पा सकता, और तब तक उसका अमृतसे वियोग बना ही रहेगा। इस लिए अद्वैतके साक्षात्कारका, भूमा की प्राप्तिका, मृत्युसे पार होनेका उच्च लक्ष्य रखते हुए द्वतके सहारे
१. यत्र नान्यत्पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमा""यो वै भूमा तदमृतमथ यद्अल्पं तन्मय॑म्
(छान्दोग्योपनिषद् ७-२४) २. "ऋचोऽक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन्देवा अधिविश्वे निषेद्धः ।
यस्तत्र वेद किमुचा करिष्यति य इत् तद् विदुस्त इमे समासते ।। (ऋग्वे०१-१६४)
२९४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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