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________________ अनिर्वचनीय सत्यकी अनुभूतिके लिए एक ऐसी लम्बी दौड़ लगा रहा है जिसका विराम कहीं भी होने वाला प्रतीत नहीं होता। परन्तु इन्द्रिय सोपान द्वारा इस पारमार्थिक तत्त्व, इस परम सत्य, तक पहुँचने की आशा मनुष्य के लिए केवल दुराशामात्र ही रही है । मनुष्य-हंस अपनी मधुर कल्पनाके सुन्दर पंखों द्वारा उस एकमात्र परमतत्त्व की प्राप्तिके लिए निरन्तर ऊपर-ऊपर उड़ता जा रहा है, सहस्रों दिन बीत गये, पर उसके वे पंख अभी तक फैले ही हुए हैं। संसारके विविध प्रकारके अनुभवों को लेता हुआ, प्रकृतिके अनेक दुर्भेद्य रहस्यों को भेदन करता हुआ, अद्भुत अद्भुत आविष्कारों द्वारा अपने बुद्धि-वैभवका चमत्कार दिखाता हुआ वह निर्वाध गतिसे ऊपर उड़ा चला जा रहा है । और उस स्वर्ग, उस आनन्दपद की प्राप्तिके लिए लालायित है, जिसको प्राप्त करने के लिए ही उसने अपनी यह अद्भुत उड़ान आरम्भ की है। अद्वैत तत्त्व या परम सत्य की अवाङ्मनसगोचरता जिन सौभाग्यशाली व्यक्तियों को, जिन क्रान्तदर्शी ऋषियों को, कभी इस परम सत्य की झांकी मिली उन सभीका यही अनुभव है कि वह परमतत्त्व अवाङ्मनसगोचर है, क्योंकि वाणी तो सापेक्ष वस्तुका ही सापेक्ष वर्णन कर सकती है, और मन भी सापेक्ष वस्तुका सापेक्ष चिन्तन, संकल्पन करने में ही समर्थ है। नेत्रों तथा श्रोत्रों की तो वहाँ पहुँच ही क्या हो सकती है ? अतएव जिन ऋषियोंको उस अद्वैत तत्त्वका साक्षात्कार हुआ, उनका वह अनुभव उन्हीं तक सीमित रहा। अपने उस साक्षात्कारका वे न तो वाणी द्वारा हो वर्णन कर सके, और न किसी प्रकारसे परम तत्त्व की अपनी उस अनुभूतिको वे सामान्य जनता की चीज बना सके वे तो नेति नेति कहकर ही चुप हो गए, उनके लिए उनका वह अनुभव गूगेका गुड़ ही बना रहा । उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि “परम तत्त्व को यह हमारी अनुभूति उपदेशका विषय नहीं, क्योंकि न तो वहाँ चक्षु की ही पहुँच है न वाणी की और न मन ही अपने सारे विद्युद्वेगसे वहाँ पहुँचनेमें समर्थ है । अतः हम नहीं जानते कि किस प्रकार इसका अनुशासन (उपदेश) करें।"३ इस प्रकारके साक्षात्कर्ता ऋषि सभी देशोंमें होते आए हैं। यद्यपि वे सभी परम तत्त्वका वर्णन विधिमुखेन न कर सके, फिर भी उन्होंने उसकी ओर निर्देश किया और अपने जीवन की उच्चता तथा महत्तासे मानवको श्रद्धाका अवलम्बन दिया। श्रद्धाके उस संबलको पाकर ही जिज्ञासु पथिक उत्साह सम्पन्न होकर आगे बढ़ता चला जा रहा है। उसका लक्ष्य है परम सत्य, अद्वैत तत्त्वकी प्राप्ति, भेदमें अभेद (unity in divesity)की अनुभूति, तथा अखिल प्रपंचके मूलमें निहित किसी अनिर्वचनीय अखण्ड सत्ताका साक्षात्कार । ज्ञानका आधार तथा लक्ष्य-भेदमें अभेदको अनुभूति वस्तुतः देखा जाय तो मनुष्यके सारे ज्ञानका आधार तथा लक्ष्य भेदमें अभेदको अनुभति ही है, चाहे वह ज्ञान इन्द्रियज हो किंवा अतीन्द्रिय । व्यक्ति विषयक ज्ञान अनेक व्यक्तियोंमें समवेत एकजाति (सामान्य सत्ता)के ज्ञान पर ही अवलम्बित है, जातिसे विच्छिन्न व्यक्तिकी प्रतीति असम्भव है । नैयायिकोंका निर्विकल्पक तथा बौद्धोंका स्वलक्षण ज्ञान तो केवल कहने की ही बात है प्रतीतिका विषय नहीं। वह ज्ञान रेखागणितके विन्दुके समान कोरी कल्पनाका विषय है। अतः हमारे व्यावहारिक ज्ञानका आधार भी अनेकतामें एकता की १. कथं वातो नेलयति कथं न रमते मनः । किमापः सत्यं प्रेरयन्ती नेलयन्ति कदाचन ।। (अथर्ववेद १०-७-३७) २. "सहस्राह ण्यं वियतौ अस्य पक्षौ हरेहंसस्य पततः स्वर्गम्' (अथर्ववेद १०-८-१८) २. “न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति न मनो न विद्मो न विजानीमो यर्थतदनुशिष्याद्' (केनोप० १-३) विविध : २९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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