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________________ और तीन सोमयाग बड़े समारम्भोंसे संपन्न किया। अडेलके निवास कालमें आप ब्रजमें जाते थे और भारतवर्ष के अन्य तीर्थों में भी जाते थे। आचार्यश्रीकी धर्माचार्य रूपकी ख्याति अब सर्वत्र प्रसृत हो गई थी । सिकन्दर लोदी ( ई० स० १४८८-१५१९) का आचार्यश्रीकी ओर बड़ा आदर था और अपने चित्रकारको भेजकर 'दामोदरदास हरसानी दण्डवत् प्रणाम करते हैं', कृष्णदास मेघन बैठे हैं और माधव भट्टकाश्मीरीको श्रीआचार्यजी सुबोधिनीजी लिखाते हैं इस प्रकारका चित्र भी बनवाया था, जो आज किशनगढ़ नरेशके पास सेवामें है । सिंकदर लोदीसे हुकम हो गया था इस कारण ब्रजभूमिमें भारतवर्षकी हिन्दू प्रजाको यात्राको सुविधा हो गई थो; कितनेक लोग अडेल तक भी आचार्यश्रीके दर्शनके लिए जाते थे यों अब शिष्योंकी तादात भी उत्तरोत्तर बढ़ती जाती थी। पुत्रप्राप्ति और प्रयाण अडेलके स्थायी निवासमें सं० १५७० (ई० स० १५१३) ब्रज आश्विनवदि १२ के दिन श्रीगोपीनाथजीका प्राकट्य हुआ। बाद जब काशी पधारे तब वहाँ न ठेरते नजदीकके पूर्वपरिचित चरणाट नामक स्थानमें रहे, जहाँ सं० १५७२ ( ई० स० १५१५)--ब्रज पौस वदि ९ शुक्रवारके दिन दूसरे पुत्र श्रीविठ्ठलनाथजीका प्राकट्य हुआ। यहाँ तकमें भागवत सुबोधिनीके १-२-३ स्कन्धके लेखन कार्य हो चुका था । अब शायद देह छोड़ने का प्रसंग आ जाय, इस शंकासे आपने १० वें स्कन्धकी टीका लिखना शुरू किया। अडेल एवं चरनाटके निवास दरम्यान ब्रजयात्राका उनका क्रम चालू था। और एक बार तो सं० १५७५ (ई० स० १५२७) में सौराष्ट्रमें द्वारका भी गये थे ऐसा प्रमाण मिला है । जब यह देह छोड़नेका प्रसंग आया तब ११ वें स्कन्धके तीन अध्यायकी टीका पूर्ण हुई थी और ४ थे अध्यायके आरम्भ मात्र किया था। आप खुद कहते हैं कि भगवान्की तीसरी आज्ञा हुई और आपने आतुर संन्यास लिया । आप काशी पधारे और वहां हनुमान घाटपर तेज पुंजके रूपमें देहत्याग किया-सं० १५८७ (ई० स० १५३०) के आषाढ़ वदि २ ऊपर ३ को रथयात्राके उत्सवकी समाप्तिके समय ही। ___ दोनों पत्रोंकी आय इतनी बडी नहीं थी। आपके शिष्योंने रक्षण भार उठा लिया। श्रीगोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथजीकी सेवाका वहीवट सुव्यवस्थित रूपमें चला जा रहा था। उत्तरावस्थामें गुरु माधवानन्दजी और इनके बाद बंगाली वैष्णव सेवामें रहते थे। क्रममें कुछ वाधा उपस्थित हुई तब आचार्यजीके एक शिष्य गुजराती कृष्णदासजीने वही वट कबज करके पुष्टिमार्गीय पद्धतिसे सेवा प्रकार चलनेकी व्यवस्था की। श्रीगोपीनाथजीको एक पुत्र हआ था। बचपनमें उसका देहान्त हआ। श्रीगोपीनाथजी भी युवावस्थामें गये और पुष्टिमार्गके प्रसार प्रचारका भार श्रीविठ्ठलनाथजी पर आया। आप चरणाट में ज्यादा करके रहते थे। वे अब मथुराजीमें आ बसे, वे बड़े दार्शनिक पण्डित एवं कवि भी थे। पिताजीकी ग्रन्थ लेखन और संप्रदाय प्रसारकी प्रणालीको उन्होंने प्रबलतासे आगे बढ़ाया । इस संप्रदायने ब्रजभाषाकी अपार सेवा की है। आचार्यश्रीके चार सेवक कुम्भनदासजी, सूरदासजी, परमानन्ददासजी और गुजराती कृष्णदासजी ने श्रीनाथजीकी कीर्तन सेवामें, कृष्ण लीलाके सहस्रों पदोंकी रचना दी, तो श्रीविठ्ठलनाथ गुसांईजीके चार सेवक चत्रभुजदासजी, नन्ददासजी गोविन्द स्वामी और छीत स्वामीने उनमें बड़ी भारी संख्याका प्रदान किया। आगे भी अनेक कवियोंने अपनी कीर्तन सेवासे ब्रजसाहित्यको बड़ा महत्त्व दिया । श्रीविट्ठलनाथजीके सात पुत्र हुए और उनके सात घरोंकी सात गादी हुई। इस सिवा समग्र भारतवर्ष में अनेक नगरोंमें, गांवोंमें पुष्टिमार्गीय मन्दिरोंमें भगवान श्रीकृष्णके ही भिन्न भिन्न लीला स्वरूपोंकी सेवाका क्रम चलता है। पुष्टिमार्गका आज प्रधान स्थान मेवाड़ में पधारे हुए श्री नाथजीका नाथद्वारमें है। २८८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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