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________________ संस्कार बड़ी धामधूमसे किया गया। इसके बाद तुरन्त ही अपने स्नेही यतिराज माधवेन्द्रयति की पाठशाला में श्रीवल्लभके विद्याभ्यासका प्रबन्ध कर लिया गया। करीब डेढ़ वर्ष अध्ययन हुआ इतनेमें माघवेन्द्र यतिका ब्रजमें जानेका हुआ और इनके शिष्य माधवानन्दजीके हाथमें अध्यापनकार्य चालू रहा । जब सातवां जन्मदिन आया उस समय संभवत: पिताजी द्वारा विष्णुस्वामी - संप्रदाय की दीक्षा बाल श्रीवल्लभ की हुई। पीछेसे यह बात विस्मृत हो गई और उस दिनको ही संप्रदाय में जन्ममाङ्गल्यदिन माना गया । संप्रदाय में यह दिन वि० सं० १५३५ ( ई० सं० १४७८ ) के व्रज वैशाख वदी १० मी उपरान्त ११ और रविवारका माना है, और 'एकादसी दूसरो याम' --जो स्पष्ट रूपमें जन्मका नहीं, दीक्षामांगल्यका ही समय है । सगुणदासजी के निम्न पदमें यह बात ही दीख पड़ती है- "कांकरवारे तैलंग-तिलक-द्विज वंदों श्रीमदलक्ष्मणनंद | श्रीब्रजराजशिरोमनि सुंदर भूतल प्रगटे बल्लभचंद ॥ अवगाहत श्रीविष्णुस्वामि पद नवधाभक्तिरत्न - रसकंद । दर्शन ही ते प्रसन्न होत मन प्रगटे पूरन परमानंद ॥ कीरति विरुद कहां लों बरनों गावत लीला श्रुति सुरछंद । सगुणदास प्रभु षट्गुणसंपन कलिजन-उद्धरन आनंदकंद ॥ दक्षिणके देशों में आज पर्यन्त यह रिवाज चालू है कि बालकको विशिष्ट दीक्षा दी जाती तब उस दिनकी मुहूर्तकुण्डली बनवाकर उस दिनको जन्मदिन जितना गौरव दिया जाता है । बरोबर इस प्रसंग पर गुरुके शोधमें निकले हुए एक क्षत्रिय भक्तका आगमन हुआ । शरणार्थी यह क्षत्रिय कृष्णदास मेघन श्रीवल्लभाचार्यजीके समग्र जीवनकालमें अहोरात्र परिचर्या में लगातार चालू रहा था । विजयनगरमें वास काशी में श्रीमाधवानन्दजीके पास श्रीवल्लभका अध्ययन व्यवस्थित चालू था । १६ वर्षमें सामान्य शास्त्रोंका अध्ययन हो गया और अब विशिष्ट शास्त्रोंके अध्ययनकी सुविधा दक्षिणमें सुलभ होनेके कारण मौसालमें जानेकी श्रीवल्लभकी इच्छा जानकर पिताजी सहकुटुम्ब विजयनगरकी ओर निकल पड़े । बीचमें यात्राके स्थानोंमें फिरते-फिरते भट्टजी विजयनगर आ पहुंचे और राज्यके दानाध्यक्ष अपने मामाजीके द्वारा की हुई सुविधाके कारण श्रीवल्लभका शास्त्रों एवं दर्शनोंका अध्ययन सुचारुरूपसे आगे बढ़ता जा रहा । यहाँ अन्यान्य आस्तिक-नास्तिक दर्शनोंके अध्ययनके साथ-साथ पूर्वमीमांसाका अध्ययन विशिष्ट रूपसे हुआ । विजयनगर में अच्छी तरहसे सुस्थिर होनेके बाद पिताजीकी इच्छा दक्षिणके तीर्थ स्थानोंके दर्शन की हुई । इस कारण कांकरपाढूसे बड़े पुत्र रामकृष्णको बुलवा लिया और तीनों पुत्रोंको लेकर माता-पिता यात्रा के लिए निकले। दोनों पुत्रियोंके लग्न होनेके कारण उस विषय में निश्चिन्तता थी। यात्रा करते-करते जब यह कुटुम्ब श्रीलक्ष्मण बालाजीके पवित्र धाममें गया (वि० सं० १५४४ - ई० सं० १४८७) तब श्री''''को शृंगार कराते-कराते लक्ष्मण भट्टजीका देहान्त हो गया । उस समय श्रीवल्लभका वय १६ वर्षोंका और छोटे रामचन्द्रका वय १४ वर्षोंका था । वहाँ ही पिताजीकी अन्त्येष्टि करके यह कुटुम्ब विजयनगर वापस लौट आया, रामकृष्ण कांकरपाढ़ गया । उनका दिल शुरूसे ही विरक्त होनेके कारण परम्पराके श्रीरामचन्द्रजीकी सेवा अपने दूसरे कुटुम्बीजनों को सौंपकर उन्होंने मध्वसंप्रदायकी दीक्षा ली और 'केशवपुरी' नाम धारण करके घरसे निकल गये । Jain Education International For Private & Personal Use Only विविध: २७९ www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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