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________________ मुस्लिम स्वतन्त्र सल्तनतकी जड़ मजबूत हो गई थी। श्रीवल्लभाचार्यजीके शब्दोंमें कहा जाय तो 'म्लेच्छाक्रान्तेषु देशेषु पापैकनिलयेषु'-ऐसी परिस्थितिमें लोगोंकी क्या परिस्थिति होगी उसका पता चलता है। अस्वतन्त्र होती जाती प्रजाको आत्मविश्वास देनेवाला कोई भी प्रयत्न हो तो वह उस समय केवल भक्तिका ही था । श्रीवल्लभाचार्यजी एवं उनके उत्तर समकालीन श्रीगौरांग चैतन्य महाप्रभुने उत्तर और पूर्व में भक्तिमार्गका प्रबल प्रसार सोलहवीं शतीमें किया और भारतीय प्रजामें आत्मविश्वाससे जीनेका बल दिया। श्रीवल्लभाचार्यजीका प्रादुर्भाव ईसाकी प्रथम शतीसे भारतवर्षके प्रदेशोंमें आन्ध्र साम्राज्यकी जहोजलाली थी और वहां भारतीय संस्कृति एवं सभ्यताका विशिष्ट प्रवाह बढ़ता ही रहा था और उसका असर नीचेके अन्य द्रविड़ प्रदेशोंमें भी अच्छी तरहसे चालू था । विद्वत्ताके विषयमें समन द्रविड़ प्रदेशोंकी करीब अग्रिमता ही रही थी। भारतवर्षने जो अनेक महान् आचार्योंका प्रदान किया, प्रायः वे सभी द्रविड़ भूभागके ही थे । महान् श्रीशंकराचार्य, श्रीविष्णस्वामी, श्रीनिम्बार्क, श्रीमध्व, और वेदभाष्यकार सायणाचार्य, सर्वदर्शनसंग्रहकार माधवाचार्य एवं श्रीविद्यारण्य स्वामी आदि वहाँके ही रत्न थे। द्रविड़देशान्तर्गत आन्ध्रप्रदेशके कांकर तहसीलमें कांकर पांढ़ गाँव भी परम्परासे श्रीविष्णुस्वामीके संप्रदायका स्थान था और वहाँ श्रीवल्लभाचार्यजीके पूर्वजोंका निवास था। इस संप्रदायके आराम्भकालमें इष्ट श्रीनृसिंह थे, पीछेसे श्रीगोपाल कृष्णकी भक्तिकी प्रचुरता होती चली थी। श्रीवल्लभाचार्यजीके पूर्वजोंमें यज्ञयागादिक वैदिक धर्मके आदरवाली भक्तिका प्राचुर्य था। इनके पूर्वजोंमें श्रीयज्ञनारायण भट्टसे कुछ माहिती मिलती है। वे आन्ध्र तैलंग ब्राह्मण थे। उनका वेद कृष्ण यजुर्वेद (तैत्तिरीय संहिता), शाखा तैत्तिरीय, गोत्र भरद्वाज, सूत्र आपस्तम्ब, देवी रेणुका, कुल वेल्लनाडु, और आख्या खम्भपट्टीवारू थी। उनके घरमें वैदिक परिपाटीका अग्निहोत्र चाल था। सोमयाग जैसे यज्ञ भी करते रहते थे। यज्ञना भट्टजीने ३२, इनके पुत्र गङ्गाधर भट्टने २७, इनके गणपति भट्टने ३०, इनके वल्लभ भट्टने ५, और इनके पुत्र लक्ष्मण भट्टने ५, इस प्रकार पाँच पूर्वजोंने मिलकर १०० सोमयाग किये थे, जिसका ही फल देवांश श्रीवल्लभाचार्यजी माने गये हैं, लक्ष्मण भट्टजीके हृदयमें किस प्रकारकी श्रद्धा होगी वह तो कैसे कहा जाय, किन्तु अन्तिम यज्ञ पूर्ण करके प्रयागमें त्रिवेणीस्नान करनेकी और प्रयाग एवं काशीमें ब्रह्मभोजन करानेकी उनकी महेच्छा थी। लक्ष्मण भट्टजीका लग्न उस समयके सुप्रसिद्ध विजयनगर साम्राज्यके पुरोहितकी बहिन एल्लम्मागारूके साथ हुआ था। यज्ञपूर्णाहुतिके बाद प्रयाग-काशीका धर्मकार्य पूर्ण करनेके बाद अनुकूलता हो तो काशीमें ही शेष जीवन बितानेकी भावना थी। उस समय स्वजातीय अनेक तैलङ्ग ब्राह्मणोंका निवास काशीमें था भी, अनेक संप्रदायोंके अनुयायियोंकी भी वहाँ अच्छी तादात थी, विष्णुस्वामी-संप्रदायके अनुयायी भी वहाँ थे, इस कारणसे भी काशी निवास करनेमें बल मिला था। ई० सं० १४७० के वर्षमें लक्ष्मण भट्टजी अपने वतन कांकरपाढ़में अपने बड़े लड़केको अपने कुलके श्रीरामचंद्रजीके मन्दिरकी सेवाका कार्य सौंपकर काशी बाजू सकुटुम्ब चल पड़े, अन्य रिश्तेदार लोग कांकरपाढ़में थे, इस कारण लड़केको एकाकीपन लगे ऐसा नहीं था। घरसे निकलकर (वि० सं० १५२७) के द्वितीय आषाढ़की अमावास्या एवं गुरुवारके दिन भट्टजी प्रयागमें आ पहुँचे और सूर्यग्रहणके योग पर त्रिवेणीस्नान करनेका लाभ उठाया; करजकी परवाह किये बिना ब्रह्मभोजन भी अच्छी तरहसे करवाया, काशी में आनेके बाद वहाँ भी ब्रह्मभोजन करवाया और वहाँ ही ठहर गये, काशीमें दक्षिणके एक विद्वान् माधवेन्द्र यतिकर थे । उनके संपर्क में लक्ष्मण भट्टजी आये । माधवेन्द्रयति सुप्रसिद्ध श्रीगौरांग चैतन्य महाप्रभु के बड़े भाई नित्यानन्दजीके गुरुभाई थे। काशीमें विविध: २७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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