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________________ प्राचीन भारतीय वाङ्मयमें प्रयोग श्री श्रीरंजन सूरिदेव एम० ए० (प्राकृत-जैनशास्त्र) वैदिक कवियों ने मानव जीवनकी साधनाके रूपमें ज्ञान, कर्म और उपासना -- इन तीनोंको ही अत्याarun है । इन तीनोंके समन्वित रूपकी वैदिक संज्ञा 'त्रयी विद्या' है। त्रयी विद्याकी समन्वित साधना ही वैदिक दृष्टि में योग है । यही योग मानव जीवनको परिपूर्ण बनाता है और उसे उसके अन्तिम लक्ष्यकी प्राप्ति करा सकता है । मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिए उक्त योगको छोड़ और कोई दूसरा रास्ता नहीं हैतमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यते अयनाय । अज्ञेय तत्त्वको जानना आसान नहीं है । उसके लिए साधनाकी आवश्यकता है। जिसने सारे लोकोंको उत्पन्न किया और जो प्रत्येक मनुष्यके भीतर विद्यमान है, वह निश्चय ही ज्ञान और कर्मकी सम्मिलित शक्ति-साधनासे जाना जा सकता है । वेदमें ज्ञान और कर्मके योगको ही 'यज्ञ' कहा गया है। 'यज्ञ' का बड़ा व्यापक अर्थ है । सामान्यतः ज्ञानपूर्वक अपने-अपने कर्मोंको योग्य रीतिसे करते जाना ही 'यज्ञ' माना गया है । वेदोत्तर कालमें यही 'यज्ञ' 'योग' में परिणत हो गया, ऐसा हमारा विश्वास है । 'यज्ञ' अपने-आपमें एक अद्भुत पद है और वैदिक ऋषियोंका विस्मयकारी आविष्कार भी । यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म कहकर यज्ञको सर्वोपरि स्थान दिया गया है। साथ ही, यज्ञको कर्मका प्रतीक भी माना गया है । वैदिक ऋषियों द्वारा यज्ञकी अनिवार्यता इसलिए बतलाई गई कि मनुष्य यज्ञ द्वारा निरन्तर क्रियाशील बना रहे । योग भी मनुष्यके क्रियाशील या गतिशील बने रहनेका शरीराष्यात्म साधन है । अष्टांग योगका पूर्वार्द्ध शारीरिक पक्षसे सम्बद्ध है, तो उत्तरार्द्ध मानसिक पक्ष से । इससे स्पष्ट है कि क्रिया और विचार या ज्ञानका सन्तुलन ही योग है । वेदोंमें साधना या योगके सन्दर्भ में इसी दृष्टिको पल्लवित किया गया है, 'योग' शब्दका स्पष्ट उल्लेख वहाँ प्रायः नहीं मिलता । वेद परवर्ती कालमें 'योग' शब्दको आध्यात्मिक-धार्मिक सन्दर्भोंसे जोड़ दिया गया । वेदको विभिन्न व्याख्याएँ हुई हैं एवं वेदाधृत अनेक ग्रन्थ भी निर्मित हुए हैं। इनमें रामायण, महाभारत, महापुराण, उपपुराण, स्मृतियों और धर्मशास्त्रों की गणना होती है। इन ग्रन्थों में योग की ही चर्चा नहीं है, अपितु योगियोंकी कथाएँ और योगाभ्यास - सम्बन्धी विस्तृत उपदेश भी हैं। पुराणोत्तर कालमें योगपर स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे गये और देव-देवियोंके वर्णनमें उन्हें 'योगिगम्य', 'योगविभूतियुक्त' आदि विशेषण दिये गये । वैदिक धाराके अतिरिक्त बौद्ध एवं जैन धारामें योग और योगियोंकी चर्चा है । बौद्धधारामें तो योगचर्चा भरपूर है, किन्तु, जैनधारामें अपेक्षाकृत कम है । बोद्धतन्त्र से ही नाथों और सिद्धों तथा वहाँसे सन्तकवि दरियादास तक योगकी परम्परा चर्चित और अर्पित है। कहना न होगा कि भारतके कई सहस्र वर्षोंके इतिहासमें योग और उससे सम्बन्ध रखनेवाले शब्दोंका व्यवहार होता रहा है । आज भी योग, न केवल आस्तिक, अपितु नास्तिक परिवेशमें भी बड़ी अभिरुचिके साथ अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किया जा रहा है- २७२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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